Saturday, March 28, 2020

Darshan, Drushti aur Paaon

दर्शन, दृष्टि और पाँव
                                                                       - हरिशंकर राढ़ी 







दर्शन, दृष्टि और पाँव का कवर 







आज मेरे यात्रा संस्मरण ‘दर्शन, दृष्टि और पाँव’ की लेखकीय प्रतियाँ प्राप्त हुईं। वैसे तो यह पुस्तक अगस्त 2019 में ही प्रकाशित होकर आ गई थी किंतु तब कुछ ही प्रतियाँ मिली थीं। इस संस्मरण को विमोचन का सौभाग्य साहित्य मनीषी प्रो0 रामदरश मिश्र के हाथों उनके जन्मदिन के अवसर पर मिला था। प्रो0 मिश्र जी के जन्मदिन पर वरिष्ठ कवि-आलोचक ओम निश्चल, नरेश शांडिल्य, अलका सिन्हा, डाॅ0 वेदमित्र शुक्ल, उपेन्द्र कुमार मिश्र एवं अन्य ख्यातिलब्ध साहित्यकार उपस्थित थे जिन्होंने इसके विमोचन को मेरे लिए गौरवपूर्ण बनाया। इसके बाद किन्ही कारणों से शेष प्रतियाँ आने में विलंब हो गया।






                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  इस संस्मरण में कुल दस ज्योतिर्लिंगों की यात्रा के साथ कन्याकुमारी, द्वारिका पुरी, मदुराई, सिक्किम, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, अजंता-एलोरा, पचमढ़ी, खजुराहो जैसे अनेक स्थानों का संस्मरण संकलित है। लगभग 240 पृष्ठों की इस पुस्तक को मनीष पब्लिकेशंस नई दिल्ली ने बहुत रुचिपूर्वक प्रकाशित किया है।

Nizamabad aur Sheetla Mata Mandir




निज़ामाबाद और शीतला माता

                              -हरिशंकर राढ़ी 


शीतला माता मंदिर निज़ामाबाद (आजमगढ़ )       छाया : हरिशंकर राढ़ी 
हमारे देश में न जाने कितने ऐसे धार्मिक स्थल हैं जहाँ विशाल संख्या में श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है। इससे न केवल आमजन का पर्यटन हो जाता हैअपितु उन स्थानों पर हजारों लोगों की जीविका का साधन बनता है। ऐसा ही एक धार्मिक स्थल आजमगढ़ के निज़ामाबाद में स्थित शीतला माता का मंदिर है।


निज़ामाबाद आजमगढ़ जनपद के लगभग मध्य में है। सुना बहुत था
जाने का संयोग कभी नहीं बना। हरी-भरी फसलों के बीच प्रकृति के वैभव का आनंद लेते हम निजामबाद स्थित शीतला माता के मंदिर पहुँच गए। यहाँ मेरा आना पहली बार हुआ। प्रथम दृष्टि  ही विश्वास हो गया कि इस मंदिर पर श्रद्धालुओं का आना-जाना बड़ी संख्या में होगा। कुल मिलाकर ग्रामीण परिवेश में बड़ा प्रंागण। हरे-भरे छायादार वृक्ष और प्रसाद बेचने वालों के अनगिनत ठीहे। हिंदू धर्म में लगभग सभी देवी-देवताओं के दिन निश्चित किए हुए हैं। देवी दुर्गा से संबंधित दिन प्रायः सोमवार या वृहस्पतिवार माना जाता है। जहाँ इतने देवी-देवता होंगेऐसी व्यवस्था बनानी ही पड़ेगी। जिस दिन हम पहुँचेवह किसी मेले या दर्शन का दिन नहीं था। यह मेरे लिए सुकून था। पूरा प्रांगण खाली। एक ही प्रसाद वाला था। उसकी प्रत्याशा देखकर हमने प्रसाद लिया और दर्शन के लिए गर्भगृह पहुँच गए।

शीतला माता का मंदिर विशाल नहीं हैलेकिन महत्त्व बड़ा जरूर है। जनश्रुतियों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण 250-300 वर्ष पूर्व हुआ था। कहा जाता है कि सन् 1825-30 ई0 के लगभग राजा मुरार सिंह ने शीतला माता का मंदिर बनवाया। यह कार्य उन्होंने पुत्र प्राप्ति की मनोकामना पूरी होने के बाद किया था। तब यहाँ घना जंगल था जिसमें पलाश की बहुतायत थी। अब यह धाम निज़ामाबाद मुख्य बाजार में पीछे की तरफ स्थित है। निज़ामाबाद आजमगढ़ से लगभग 18 किमी तथा कप्तानगंज से 23 किमी की दूरी पर स्थित है। नवरात्रों में ठसाठस भीड़ होती है। हजारों भक्त माँ से मनोकामना पूर्ति की आकांक्षा लेकर आते हैं। कड़ाही चढ़ती है और मन्नतें पूरी की जाती हैं। बच्चों के मुंडन संस्कार होते हैं।
शीतला माता मंदिर निज़ामाबाद में लेखक       छाया : हरिशंकर राढ़ी 
जनहित इंडिया पत्रिका के सितंबर 2018 अंक में निज़ामाबाद के इतिहास पर प्रताप गोपेंद्र का एक लेख छपा है जो निज़ामाबाद के विषय में पुष्ट एवं व्यापक जानकारी देता है। प्रताप गोपेंद्र उत्तर प्रदेश पुलिस में अधिकारी हैं। आजमगढ़ के मूल निवासी हैं वे और आजमगढ़ के इतिहास पर उनकी गहन शोधपरक पुस्तक प्रकाशित होने जा रही है। सन् 1856 मंे निज़ामाबाद में वर्नाकुलर मिडिल स्कूल खोला गया जिसमें राहुल सांकृत्यायन तथा अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध जैसी महाविभूतियों ने शिक्षा प्राप्त की।

धार्मिक-ऐतिहासिक पक्षों को उपेक्षित करते हुए मेरा मन हरिऔधतथा सांकृत्यायन पर अटक गया। यह क्षेत्र हिंदी साहित्य को खड़ी बोली कविता का संस्कार देने वाले हरिऔध जी का है। उनका प्रिय प्रवास हिंदी काव्य जगत में मील का पत्थर साबित हुआ। हरिऔध जी का जन्म निज़ामाबाद में ही सन् 1865 में हुआ था।

शीतला माता मंदिर प्रांगण  निज़ामाबाद       छाया : हरिशंकर राढ़ी 
हरिऔधजी का निज़ामाबाद प्रेम कभी कम नहीं हुआ। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने कानूनगो की नौकरी की और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। अंततः सेवानिवृत्ति के बाद हरिऔध जी ने निज़ामाबाद के उसी मिडिल स्कूल में अवैतनिक अध्यापन किया जिसमें उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की थी। तब बहुत गर्व होता था कि ऐसा महान कवि हमारे आज़मगढ़ का है। गर्व तो अभी भी होता है किंतु दुख इस बात का होता है कि साहित्यिक राजनीति के चलते ऐसे कवियों को पाठ्यक्रम से बाहर किया जा रहा है और पाठ्यक्रम से बाहर किसी कवि के विषय में सबको जानकारी हो जाएयह मुश्किल लगता है।

यायावरी साहित्य को पहली बार हिंदी साहित्य में लाने वालेबहुभाषाविज्ञता एवं ज्ञान के चरमोत्कर्ष तक जाने महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने भी निज़ामाबाद क्षेत्र के यश में  वृद्धि की। सांकृत्यायन का जन्म ननिहाल पंदहा में हुआ था जो रानी की सराय के पास है। निज़ामाबाद में स्थित वर्नाकुलर मिडिल स्कूल में उन्होंने भी शिक्षा प्राप्त की। ननिहाल में बैल की विक्री से प्राप्त 22 रुपये चुराकर वे यायावरी पर निकल पड़े और पूरे विश्व में आज़मगढ़ ही नहींदेश की पताका फहराई।

आज आजमगढ़ की बात आती है तो न जाने किन असामाजिक तत्त्वों की चर्चा होती है। कुछ प्रसिद्ध शायरों से आज़मगढ़ की पहचान बनाई जाती है किंतु हरिऔधऔर सांकृत्यायन जैसे उपेक्षित हो जाते हैं। निज़ामाबाद का जिक्र डाॅ0 तुलसीराम अपनी आत्मकथा मुर्दहियामें करते हैं। वे जहानागंज के थे। मैंने मुर्दहिया पूरी पढ़ी हुई है। साठ-सत्तर के दशक के आज़मगढ़ के ग्रामीण जीवन का जीवंत है दस्तावेज है यह आत्मकथा। भयंकर गरीबी और सामाजिक बहिष्कार का दंश झेलते दलितों ही नहींअन्य वर्गों एवं तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था का जो सजीव चित्र डाॅ0 तुलसीराम ने खींचा हैवह अन्यत्र दुर्लभ है।

शीतला माता मंदिर प्रांगण  निज़ामाबाद  में  सपरिवार      
भारत की ग्रामीण संस्कृति में ऐसे स्थलों का धार्मिक या पौराणिक महत्त्च जो भी होये एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक वातायन होते हैं। यद्यपि आज ग्रामीण स्त्रियाँ भी धनार्जन के लिए बाहर जा रही हैंफिर भी महिलाओं की एक बड़ी आबादी घरों की चारदीवारी में कैद हो अपने पारिवारिक दायित्व में ही पूरा जीवन खपा देती हैं। बहुतों की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं होती और न इतनी बड़ी सामाजिक स्वीकृति ही होती है कि वे दूर देश भ्रमण हेतु जा सकें। ऐसी स्थिति में ये देवालय ही उनके लिए बाह्य जगत से संपर्क सूत्र होते हैं। दर्शन-पूजन के बहाने उन्हें बाहर निकलने का मौका मिलता है और वे ऊर्जस्वित हो पाती हैं। कुछ दशकों पहले गाँवों में लगने वाले मेले उनकी व्यक्तिगत जरूरतों एवं शृंगार प्रसाधनों के क्रयकेंद्र हुआ करते थे। प्रतिबंधों की मर्यादा को मानते हुए वे विशेष परिस्थिति में अपनी बहनों या माँ से यहीं मिल पाती थीं।

निज़ामाबाद आज़मगढ़ का एक ऐतिहासिक स्थल है। यहाँ के मृद्भांडों की कला देश-विदेश में प्रसिद्ध है। यह बात अलग है कि मृद्भांड अब केवल पुरातत्व की वस्तु रह गए हैं और इनकी कला की कोई स्थानीय पूछ नहीं रह गई। अब तो बड़ी फैक्ट्रियों में बनने वाली थर्मोकोल की पर्यावरण नाशक पत्तलों एवं प्लास्टिक की गिलासों ने कुम्हारों को दुर्दशा में ला पटका है।