यात्रा संस्मरण
बहुप्रतीक्षित, प्रतिष्ठित और रोमांचित करने वाली केदारनाथ धाम की यात्रा करके कल लौट आया। पहले केदारनाथ की, फिर बद्रीनाथ की। धार्मिक दृष्टि से देखूँ तो इस यात्रा के साथ मेरी चार धाम (द्वारका पुरी, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम् और बद्रीनाथ धाम) तथा द्वादश ज्योतिर्लिंगों की यात्रा संपन्न हो गई। हालाँकि, ये यात्राएँ मेरे लिए धार्मिक-आध्यात्मिक कम, भारत भ्रमण या पर्यटन अधिक थीं। केवल धार्मिक आस्था की बात होती तो संभवतः मैं नहीं जाता। हाँ, इसमें संदेह नहीं कि इस व्यवस्था के पीछे व्यवस्थाकारों ने बहुत सोचा होगा, तब जाकर ये स्थल तीर्थयात्रा के लिए निर्धारित किए गए होंगे। जहाँ चारो धाम देश के चार कोनों का, वहीं द्वादश ज्योतिर्लिंग देश के बाहरी से लेकर आंतरिक हिस्सों तक का पूरा भ्रमण करा देते हैं। आज पर्यटन की दृष्टि से यात्राएँ विस्तार पा रही हैं, किंतु इसमें संदेह नहीं कि धर्म के बहाने यात्रा करने वालों की संख्या आज भी बहुत बड़ी है।
केदारनाथ और बद्रीनाथ की मेरी यात्रा बहुप्रतीक्षित थी, जो किसी-न-किसी कारण से टलती जा रही थी। केदारनाथ आपदा वर्ष 2013 के बाद कुछ वर्षों तक रास्ता न होने से टली और फिर कुछ अन्य कारणों से। लेकिन इस अक्टूबर में योजना सफल हो गई। श्रीमती जी, मैं और सपत्नीक मित्र ज्ञानचंद जी सारी चुनौतियों को ठिकाने लगाते हुए इस दुर्गम व महत्त्वाकांक्षी यात्रा को पूरी करने में जुट गए!
केदारनाथ मंदिर का एक विहंगम दृश्य |
आज बद्रीनाथ-केदारनाथ यात्रा से लौटकर, पाँवों में पैदल चढ़ाई की किंचित पीड़ा लिए केदारनाथ के उस पैदल मार्ग की याद कर रहा हूँ, जिस पर एक-एक कदम चढ़ते-बढ़ते हम लगभग बारह घंटे में केदारनाथ मंदिर के प्रांगण में पहुँच पाए थे। वे क्षण भी याद आ रहे हैं, जब लगा था कि मेरा पैदल जाने का निर्णय बहुत गलत था। घोड़े से बहुत सामंजस्य तो नहीं बैठने वाला था, किंतु केदारघाटी में उड़ते हेलीकॉप्टरों को देखकर कभी-कभी रश्क होता था। लेकिन चेतना और इच्छाशक्ति उस रश्क को रोक देती थी- तुम दर्शन करने नहीं, उस दुर्गम स्थल को नजदीक से देखने-समझने आए हो, जहाँ लोग साधनहीन सदियों से चलते आए हैं। आज तो रास्ता भी बना हुआ है; जगह-जगह छाया है; तिरपाल और प्लास्टिक के शिविर हैं; कदम-कदम पर दूकानें है; भले ही सामान महँगा हो। लेकिन यह भी याद है कि उस कठिन चढ़ाई पर सात-आठ किलो का पिट्ठू बैग कैसे आहिस्ता-आहिस्ता सत्तर-अस्सी किलो का आभास देने लगा था।
निर्णय यह था कि हरिद्वार से हम किराये की टैक्सी करेंगे। वहाँ के ड्राइवर पहाड़ों में चलने के अभ्यस्त होते हैं और वहाँ की परिस्थिति के जानकार होते हैं। हरिद्वार हम दोपहर बाद पहुँच गए थे। एक ट्रवेल एजेंसी से बात की तो चार लोगों के लिए डिजायर टाइप गाड़ी 2800/ प्रतिदिन के हिसाब से मिल गई। यही गाड़ी अप्रैल-मई में लगभग चार हजार रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मिलती है। छह सीटर गाड़ियाँ लगभग एक हजार रुपये प्रतिदिन अधिक लेती हैं। इसमें गाड़ी का पेट्रोल, टोल तथा ड्राइवर इत्यादि का खर्चा शामिल होता है। होटल इस समय बहुतायत में मिल जाते हैं। बेहतर हो कि वहीं जाकर लें। ऑनलाइन बुकिंग में जालसाजी, धोखेबाजी की आशंका बहुत है। सबसे बड़ा खतरा होटल की लोकेशन को लेकर रहता है।
हरिद्वार से प्रातः 6:30 पर निकलकर हम सायं चार बजे सोनप्रयाग पहुँच गए। सोनप्रयाग वह जगह है, जहाँ केदारनाथ की यात्रा का पंजीकरण सत्यापन होता है। आपकी गाड़ी को यहीं तक जाने दिया जाता है। सोनप्रयाग पंजीकरण स्थल से सटा हुआ सीतापुर कस्बा है। अधिकतर होटल सीतापुर में ही हैं। हरिद्वार से सोनप्रयाग के बीच में पहला रमणीक स्थल देवप्रयाग है, जहाँ भागीरथी और अलकनंदा नदियों का अद्भुत संगम है। देवप्रयाग में दोनों का संगम देखना एक रोमांचक अनुभव है। भागरथी तेज गति से आती है, जबकि अलकनंदा धीमी। लोग कहते हैं कि भागीरथी सास है और अलकनंदा बहू। सास के सामने बहू धीमे चलती है। लेकिन सास-बहू का यह संगम बहुत लुभाता है। यहीं से दोनों मिलकर गंगा बन जाती हैं!
Kedarnath Trek |
सीतापुर होटल से हम सुबह छह बजे तक निकल गए। पंजीकरण सत्यापन कार्यालय तक गाड़ी ने छोड़ दिया। वहाँ अपना पंजीकरण-पत्र स्कैन कराया। नदी का पुल पार किया और गौरीकुंड जाने वाली गाड़ी में बैठ गए। यहाँ अपनी गाड़ी ले जाने की अनुमति नहीं है। यहाँ से गौरीकुंड की दूरी 5 किमी है, जिसके लिए बोलैरो या मैक्स गाड़ियाँ चलती हैं। एक गाड़ी में ठूस-ठूसकर दस सवारियाँ भरते हैं। प्रति सवारी 50 रुपया लेते हैं और लगभग 15 मिनट में गौरीकुंड पहुँचा देते हैं। इस रोमांच को महसूस करते हम भी गौरीकुंड पहुँच गए।
केदारनाथ मंदिर से वापसी : हरिशंकर राढ़ी |
योजना के अनुसार हमने एक-एक पिट्ठू बैग ले लिया था, जिसमें आवश्यक सामान तो थे ही, आपदा की आशंका से निपटने के लिए कुछ अतिरिक्त सामान थे। जरूरी किट में एक जोड़ी साफ कपड़े, नहाने-बदलने के कपड़े, सामान्य दवाइयाँ जिनमें बुखार, पेट, उलटी, एलर्जी, प्राथमिक चिकित्सा हेतु पट्टी, बैंडेज, डिटॉल, मरहम, मूव, दर्दनाशक गोलियाँ, ऑक्सीजन की कमी के लिए डायमॉक्स आवश्यक हैं। मोबाइल चार्जर, पॉवर बैंक, टॉर्च, एक चाकू, जुराबें, गरम दस्ताने आवश्यक हैं; हमारे पास थे। साथ में पत्नी हो तो खाने-पीने की चिंता आपको नहीं करनी है। हालाँकि रास्ते में चलताऊ खाद्य पदार्थ मिलते हैं, फिर भी देवी जी ने सूखे मेवे, भुने चने, बिस्कुट और न जाने क्या-क्या रख लिया था। खाद्य पदार्थ उनके बैग में था, बाकी अधिकतर सामान मेरे में।
यहाँ से आगे जरूर पढ़िए। अभी तक तो एक पूर्व तैयारी थी, कुछ कच्ची, कुछ पक्की। अब असली अनुभव आने वाला है। यदि आपको इस मार्ग पर पैदल चलना है, तो कुछ और समझना जरूरी है। दरअसल इस यात्रा में न तो चढ़ाई इतनी दुखी करने वाली है और न मौसम! दुखी तो हम इंसान कहलाने वाले प्राणी ही करते हैं। दुखी करने के लिए पशुओं का शोषण करते हैं और खुद पशु बन जाते हैं। इस मार्ग में तीन बाधाएँ हैं- घोड़े-खच्चर, पालकीवाले और बैग का भार। आप सोनप्रयाग पहुँचे नहीं कि घोड़ेवाले आपको घेरना शुरू कर देंगे- “जी, घोड़ा करेंगे? आप पैदल नहीं जा पाएँगे। आपको सही लगा देंगे! कर लो साहब जी!” एक को आप मना करके दो कदम चले होंगे कि दूसरा आ जाएगा। यह क्रम बेस कैंप तक चलता रहेगा। आप तब तक थककर चूर हो गए रहेंगे और हो सकता है कि आप घोड़ा कर लें!
एक साथ दस-पंद्रह घोड़ों का झुंड निकलेगा। घोड़ेवाला घोड़े की पूँछ खींचता हुआ, मौके-बेमौके उसे सटाक्-सटाक् रसीद करता हुआ भगाएगा। दर्जनों घोडों के गले की घंटियाँ आपका ध्यान तोड़ती हुई गूँज रही होंगी। घोड़ों का झुंड तीव्रगति से आपको पीठ से रगड़ता हुआ निकलेगा। किस घोड़े के धक्के से आप पहाड़ में पिसेंगे या बगल में मंदाकिनी नदी की चार सौ फीट गहरी खाईं में गिरकर स्वर्गारोहण करेंगे, कोई नहीं जानता। घोड़े पर सवार कोई तीर्थयात्री कब घोड़े से टपक पड़ेगा, यह भी कोई नहीं जानता। प्रतिदिन के हिसाब से कुछ यात्री घोड़े की पीठ से टपकते हैं तो कुछ पदयात्री घोड़े की टक्कर से। वापसी में एक बार ऐसी टक्कर मुझे भी लगी थी, किंतु सतर्कता के कारण बच गया। इन घोड़ेवालों पर किसी बात का असर नहीं पड़ता। उन्हें तो बस पाँच-छह घंटे में केदारनाथ पहुँचकर दूसरी सवारी ढूँढ़नी है। निस्संदेह, यदि यह पथ खच्चर-घोड़ारहित हो जाए तो यात्रा की दुश्वारियाँ आधी कम हो जाएँगी।
यदि आप पैदल हैं तो ये आपको कदम-कदम इतना पूछेंगे कि मन होगा कि इन्हें यही डंडा उठाकर मार दें। ऊपर से पीठ पर लटका हुआ पिट्ठू बैग गुरु से गुरुतर होता जाएगा। अब यही सामान अपनी संपत्ति की तुलना में भार लगने लगेगा। यदि बारिश हो गई, जिसकी संभावना हमेशा बनी रहती है तो कोढ़ में खाज। घोड़े पर बैठा तीर्थयात्री कम परेशानी में नहीं। वह तो चल भी रहा है घोड़े और घोड़ेवाले की मरजी से। बार-बार रुक भी नहीं सकता। जीवन में पहली बार घुड़सवारी का मौका इतना आनंदमय नहीं होता।
ठीक है, आप कह सकते हैं कि जो पैदल नहीं चल सकता, उसके लिए घोड़ा जरूरी है। यह तो एक प्रकार का साधन है, सेवा है। न जाने कितने लोगों के लिए रोजगार का बड़ा स्रोत है। बात सही है। किंतु उसकी भी एक सीमा होनी चाहिए। पदयात्रियों की जान और चैन की कीमत पर यह घोड़ा-गुंडई सहन करना आसान नहीं। कुछ बूढे़-बुजुर्ग तो धार्मिक आस्था के कारण जाने को मजबूर हैं, किंतु बीस से चालीस साल के युवाओं की ऐसी क्या मजबूरी है कि बात-बेबात अश्वारोही बनने चले हैं? पता नहीं यह शौक है या फिर स्टेटस सिंबल कि हम पैदल नहीं चलते! कुछ तो चार-छह माह के अबोध बच्चे को गोद में बिठाए अश्वारोहण कर रहे हैं। उन्हें बालक की भी चिंता नहीं।
Mandakini Bridge at Kedarnath Trek |
पालकी और टोकरी में यात्री ढोने वालों की संख्या कम नहीं है। इनकी अच्छाई यह है कि ये पदयात्रियों के साथ दुर्व्यवहार नहीं करते। हाँ, इनकी स्थिति पर तरस जरूर आता है। एक पालकी में कोई धर्मयात्री मुर्दा जैसी स्थिति में सिकुड़ा पड़ा है और चार आदमी उस कठिन, घोड़े-खच्चर की लीद व बारिश से फिसलन भरे उबड़-खाबड़ बेडौल पत्थरों वाले मार्ग पर पालकी उठाए, सधे हुए कदमों से चले जा रहे हैं। एक भरे-पूरे आदमी को टोकरी में बिठाकर एक दूसरा आदमी अपने माथे से लटकाए मरे-मरे कदमों से चढ़ रहा है। बेरोजगारी की क्या स्थिति है अपने यहाँ! कितना मजबूर है आदमी एक रोटी के लिए कि जहाँ हम अपने शरीर का भार नहीं उठा पा रहे, वहीं वह किसी अनजान को लादे चला जा रहा है। क्या अंतर है आदमी और खच्चर में?
लगभग तीन किमी रह गया तो कैंप में ठहरने का न्योता देने का क्रम शुरू हो जाता है। बेस कैंप तक आते-आते ऐसी दूकानदारी शुरू हो जाती है। अक्टूबर में सीजन सामान्य होने से इस प्रकार की पूछताछ व प्रस्ताव बढ़ जाता है। हालाँकि इसे अच्छा मानना चाहिए, क्योंकि इस बियाबान में रहने के लिए ये शिविर ही सहजता से उपलब्ध हैं। प्रति व्यक्ति तीन सौ से लेकर हजार रुपये के कैंप उपलब्ध हैं। इसमें कैंप के अंदर ठंड से निपटने के लिए पर्याप्त बिस्तर, रजाइयाँ और कंबल मिल जाते हैं। समस्या शौचालय को लेकर है। यहाँ कैंपों में कॉमन सरकारी शौचालय का प्रयोग करना होता है। अधिकतर में स्वच्छता-सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता। भीड़ अधिक होने पर प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
किसी संबंधी के माध्यम से मुझे एक पंडित जी का नंबर मिल गया था। उनसे बात की और यात्रा की तिथि बताई तो उन्होंने आश्वासन दे दिया था कि अटैच बाथ का एक कमरा दे देंगे। यह बड़ी राहत की बात थी। यह तो वहाँ जाकर पता लगा कि इस सीजन में कमरा वहीं मिल जाता। पंडित जी पूरे रास्ते फोन कर-करके मेरी स्थिति लेते रहे और तसल्ली करते रहे कि ग्राहक भक्त आ रहा है। उनका कमरा खाली नहीं जाएगा। दूसरे यह कि क्या मैं वीआईपी पूजा या विशेष दर्शन करना चाहूँगा? उसके लिए इक्यावन सौ की पर्ची कटेगी और गर्भगृह में ले जाकर पूजा-अभिषेक करवा देंगे। ऊपरी दक्षिणा मिलेगी ही। मैंने मना कर दिया। मुझे सामान्य दर्शन चाहिए। मुझे ऐसी महँगी विशिष्टता का कोई शौक नहीं। ऐसे दर्शन में भी मुझे विश्वास नहीं। पहुँच गया, यही बड़ा काम है।
विशिष्ट पूजा के लिए मना करते ही पंडित जी ने कहा कि कमरा तो मिल जाएगा, लेकिन चार व्यक्तियों के लिए एक कमरे के पाँच हजार रुपये लगेंगे। मैंने हाँ कर दी। प्रांगण में पहुँचा तो वे प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने सुन रखा था कि सुबह दर्शन के लिए चार-पाँच घंटे की लाइन लगती है। दर्शन यदि शाम को हो जाए तो सुबह का झंझट खत्म। मित्र ज्ञानचंद भी इस बात से सहमत थे। पंडित जी से बात की तो बोले अभी दर्शन हो रहे हैं। हमने कमरे में जल्दी से सामान पटका। सौभाग्यशाली तो हम ऐसे निकले कि लाइन में प्रवेश करते ही गेट बंद हो गया। कुल दस मिनट में दर्शन हो गया और हम प्रफुल्लित बाहर निकल आए।
निस्संदेह केदारनाथ मंदिर एक भव्य-दिव्य स्थल है। न जाने कौन-सा चमत्कार था कि हमारी दिन भर की थकान, चिड़चिड़ाहट, नकारात्मकता छू-मंतर हो चुकी थी। हम निहार रहे थे उस स्थल को, जो बहुत दुर्गम होने पर भी आस्था का इतना बड़ा केंद्र बना हुआ है। मैं पर्यटन मानसिकता का हूँ, इसलिए यहाँ पहुँचा हूँ। अधिकतर लोग तो आस्था के कारण इतना कष्ट उठाकर आते हैं। 2013 की आपदा के बावजूद यात्रियों संख्या में बढ़ोतरी हुई है।
केदारनाथ मार्ग पर मन्दाकिनी पुल पर हरिशंकर राढ़ी |
मंदिर के आसपास कुछ भवन, कुछ अस्थायी दूकानें हैं। लोगबाग ऊर्जा से भरे इधर-उधर आ जा रहे हैं। आज भी केदारनाथ पहुँचने वालों में 75 प्रतिशत से अधिक पदयात्री हैं। बूढ़े-बुजुर्ग हैं। सबको लग रहा है जैसे कठिन यात्रा का पारिश्रमिक उम्मीद से अधिक मिल गया है। आखिर इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा। लोग मोबाइल से फोटो खींच रहे हैं, अपने प्रियजनों को वीडियो कॉलिंग करके मंदिर का दर्शन करवा रहे हैं। कितनी जीवंतता है!
पंडित जी ने कहा, “रात में दो बजे उठ जाइएगा। शाम के दर्शन का विशेष लाभ नहीं है। मैं जगा दूँगा। गरम पानी की बालटी दिलवा दूँगा (जिसका प्रति बालटी 150 रुपया लगेगा)। ढाई बजे लाइन में लग जाएँगे तो छह बजे तक दर्शन हो जाएगा। गर्भगृह में दर्शन होगा। अपना जल चढ़ा सकते हैं। पाँच-छह बजे लगेंगे तो दस बजे दर्शन होगा। या तो पर्ची कटवा लीजिए, इक्यावन सौ में रात बारह बजे विशेष पूजा और दर्शन करवा देंगे।” मेरी इच्छा नहीं है। एक बार दर्शन हो चुका है। रात में दो बजे कौन उठेगा? अपने वश की तो नहीं। अब सुबह आराम से उठेंगे, भीड़ नहीं होगी तो दर्शन कर लेंगे; अन्यथा घूम-फिरकर रास्ता पकड़ेंगे। पैसा देकर दुबारा दर्शन न करने का निर्णय देखकर पंडित जी कुढ़ते हैं। उन्हें मैं या तो बहुत बड़ा कंजूस लगता हूँ या बौड़म। कहते हैं कि ठीक है, दस बजे कमरा खाली कर दीजिएगा। मैं बता देता हूँ कि नौ बजे खाली कर दूँगा।
मंदिर बंद हो चुका है और ढंड बढ़ गई है। ढोकर लाए हुए गरम कपड़े अब सुखद लग रहे हैं। अच्छा किया जो ले आया। अब भोजनालय बंद होने को हैं, सो जल्दी चलकर कुछ खाया जाए। पूरा दिन तो चाय, मैगी, नीबू-पानी पर निकला है। अब रोटी चाहिए। एक ढाबे पर जाते हैं। दो सौ रुपये में एक थाली उपलब्ध है। दाल, आलू सोयाबीन की सब्जी, चावल और चार रोटी। जगह के हिसाब से सस्ती है। सामान यहाँ तक लाने में कितनी ढुलाई देनी पड़ती है! एक व्यावसायिक गैस सिलिंडर यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते साढे चार हजार का हो जाता है। दो हजार तो उसकी ढुलाई ही लग जाती है। जहाँ एक बोतल पानी सौ रुपये में मिल रहा हो, वहाँ दो सौ की थाली तो सस्ती ही है। हम सभी खाकर ढंड में काँपते कमरे में आ जाते हैं।
निश्चित कर लिया था कि दो बजे नहीं उठेंगे। हम इतना नहीं कर सकते। शरीर समर्थन नहीं दे रहा। यह रात बहुत कष्टप्रद निकली। चारों में किसी को नींद नहीं, कोशिश सभी कर रहे हैं। कह कोई नहीं रहा। तबीयत बेचैन है। रात के डेढ़ बज रहे हैं। सोच रहा था कि अब कभी ऐसी यात्रा नहीं करूँगा। जहाँ इतनी लंबी लाइन हो, वहाँ तो कतई नहीं जाऊँगा। बेचैनी बढ़ी तो श्रीमती जी को जगाकर बाम माँगा और लगाया। कुछ चक्कर-सा आ रहा है। शायद ऑक्सीजन स्तर कम है, या थकान है। उठकर दवा निकाली। सबने बुखार-दर्द की एक-एक गोली खाई और लेट गए। कुछ चैन तो मिला। उस ढंड में भी एक बोतल पानी पी गया।
सुबह हम दर्शन को नहीं गए। दो बजे कोई उठाने भी आया था। हमने मना कर दिया। सही सलामत लौटना भी है। छह बजे के बाद तैयार होकर निकले। इतनी सुहानी सुबहें कम होती हैं। मंदिर के पीछे की चोटी पर बरफ सोने-चाँदी जैसी चमक रही थी। कभी यही बादल फटा था और पूरे केदारनाथ को लील लिया था। बस एक मंदिर बचा था। उसके पीछे की भीमशिला ने बचा लिया था। वह अभी भी है। उसके पीछे एक कंपनी का हेलीपैड है। पास में ही शंकराचार्य की समाधि है, जिसका निर्माण अभी हाल में हुआ है। एक तरफ एक विशाल झरना गिर रहा है। पास से ही मंदाकिनी नदी गाती-बजाती बह रही है। क्या दृश्य है!
हम भीड़ का जायजा लेते हैं। नहीं, नौ बजे के पहले नंबर नहीं आएगा। एक दूकान पर जाते हैं। तीस रुपये का एक समोसा और इतने की ही चाय है। इसे सस्ता कहा जाएगा। इससे दो-तीन गुना महँगी चाय तो दिल्ली के मॉल में है। ये बेचारे कितना श्रम कर रहे हैं। एक प्रकार की तपस्या ही है। चाय-समोसे का स्वाद लेकर, दूकानदार से बातचीत करके कुछ खरीदारी करते हैं। नौ बजे निकल देना है। मन होता है कि इस दिन, इस तिथि और समय को कहीं टाँक लूँ। पता नहीं फिर कभी आना होगा या नहीं! मन तो यह भी था कि दो-तीन दिन रहते तो कितना अच्छा होता! मेरे पास समय की कमी नहीं। लेकिन उधर टैक्सीवाले का किराया 2800/ के हिसाब से बढ़ रहा है। दो दिन में उसके बैठे-ठाले 5600/ बन गए और हमारे बिगड़ गए। रुकना तो तभी संभव है, जब आदमी अपनी गाड़ी या सार्वजनिक परिवहन से गया हो। फिर केदारनाथ में ठहरने के लिए एक रात का पाँच हजार ढीला करना पडे़गा। मन का क्या है, मन तो होता ही है फिसलने के लिए!
पता नहीं उस प्रकृति में ऐसा क्या है कि मार्ग में आने वाली कठिनाइयों एवं कमजोरियों का प्रभाव अब तक हवा हो गया था। हम एकदम तरोताजा लग रहे थे। आनंद तो आया था। कठिनाइयों का अपना एक आनंद होता है, जिसकी अनुभूति बाद में होती है। बिना परिश्रम के अच्छी चीजें मिलती कहाँ हैं? चढ़ाई और महँगाई का कष्ट न जाने किस दुनिया में बिला गया था। केदारनाथ धाम को, उसके पीछे चमकते पहाड़ को और नैसर्गिक सौंदर्य को प्रणाम किया और चल पड़े। मंदाकिनी तो अभी साथ-साथ ही चलेगी। उसे गौरीकुंड में प्रणाम कर लेंगे।
वापसी में समय कम लगता है, फिर भी तो रास्ता वही है। घोड़े-खच्चर, मौसम तथा बैग वही है। उतराई में सँभलना बहुत पड़ता है। अपनी-अपनी लाठी सँभाली और ठेगे-ठेगे चल पड़े- एक और कष्टमय आनंद के लिए!