Tuesday, October 22, 2024

 यात्रा संस्मरण

केदारनाथ यात्रा का कष्टप्रद आनंद

-हरिशंकर राढ़ी

Hari Shanker Rarhi  at Kedarnath Temple
बहुप्रतीक्षित, प्रतिष्ठित और रोमांचित करने वाली केदारनाथ धाम की यात्रा करके कल लौट आया। पहले केदारनाथ की, फिर बद्रीनाथ की। धार्मिक दृष्टि से देखूँ तो इस यात्रा के साथ मेरी चार धाम (द्वारका पुरी, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम् और बद्रीनाथ धाम) तथा द्वादश ज्योतिर्लिंगों की यात्रा संपन्न हो गई। हालाँकि, ये यात्राएँ मेरे लिए धार्मिक-आध्यात्मिक कम, भारत भ्रमण या पर्यटन अधिक थीं। केवल धार्मिक आस्था की बात होती तो संभवतः मैं नहीं जाता। हाँ, इसमें संदेह नहीं कि इस व्यवस्था के पीछे व्यवस्थाकारों ने बहुत सोचा होगा, तब जाकर ये स्थल तीर्थयात्रा के लिए निर्धारित किए गए होंगे। जहाँ चारो धाम देश के चार कोनों का, वहीं द्वादश ज्योतिर्लिंग देश के बाहरी से लेकर आंतरिक हिस्सों तक का पूरा भ्रमण करा देते हैं। आज पर्यटन की दृष्टि से यात्राएँ विस्तार पा रही हैं, किंतु इसमें संदेह नहीं कि धर्म के बहाने यात्रा करने वालों की संख्या आज भी बहुत बड़ी है।
केदारनाथ और बद्रीनाथ की मेरी यात्रा बहुप्रतीक्षित थी, जो किसी-न-किसी कारण से टलती जा रही थी। केदारनाथ आपदा वर्ष 2013 के बाद कुछ वर्षों तक रास्ता न होने से टली और फिर कुछ अन्य कारणों से। लेकिन इस अक्टूबर में योजना सफल हो गई। श्रीमती जी, मैं और सपत्नीक मित्र ज्ञानचंद जी सारी चुनौतियों को ठिकाने लगाते हुए इस दुर्गम व महत्त्वाकांक्षी यात्रा को पूरी करने में जुट गए!

केदारनाथ मंदिर का एक विहंगम दृश्य
आज बद्रीनाथ-केदारनाथ यात्रा से लौटकर, पाँवों में पैदल चढ़ाई की किंचित पीड़ा लिए केदारनाथ के उस पैदल मार्ग की याद कर रहा हूँ, जिस पर एक-एक कदम चढ़ते-बढ़ते हम लगभग बारह घंटे में केदारनाथ मंदिर के प्रांगण में पहुँच पाए थे। वे क्षण भी याद आ रहे हैं, जब लगा था कि मेरा पैदल जाने का निर्णय बहुत गलत था। घोड़े से बहुत सामंजस्य तो नहीं बैठने वाला था, किंतु केदारघाटी में उड़ते हेलीकॉप्टरों को देखकर कभी-कभी रश्क होता था। लेकिन चेतना और इच्छाशक्ति उस रश्क को रोक देती थी- तुम दर्शन करने नहीं, उस दुर्गम स्थल को नजदीक से देखने-समझने आए हो, जहाँ लोग साधनहीन सदियों से चलते आए हैं। आज तो रास्ता भी बना हुआ है; जगह-जगह छाया है; तिरपाल और प्लास्टिक के शिविर हैं; कदम-कदम पर दूकानें है; भले ही सामान महँगा हो। लेकिन यह भी याद है कि उस कठिन चढ़ाई पर सात-आठ किलो का पिट्ठू बैग कैसे आहिस्ता-आहिस्ता सत्तर-अस्सी किलो का आभास देने लगा था।
निर्णय यह था कि हरिद्वार से हम किराये की टैक्सी करेंगे। वहाँ के ड्राइवर पहाड़ों में चलने के अभ्यस्त होते हैं और वहाँ की परिस्थिति के जानकार होते हैं। हरिद्वार हम दोपहर बाद पहुँच गए थे। एक ट्रवेल एजेंसी से बात की तो चार लोगों के लिए डिजायर टाइप गाड़ी 2800/ प्रतिदिन के हिसाब से मिल गई। यही गाड़ी अप्रैल-मई में लगभग चार हजार रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मिलती है। छह सीटर गाड़ियाँ लगभग एक हजार रुपये प्रतिदिन अधिक लेती हैं। इसमें गाड़ी का पेट्रोल, टोल तथा ड्राइवर इत्यादि का खर्चा शामिल होता है। होटल इस समय बहुतायत में मिल जाते हैं। बेहतर हो कि वहीं जाकर लें। ऑनलाइन बुकिंग में जालसाजी, धोखेबाजी की आशंका बहुत है। सबसे बड़ा खतरा होटल की लोकेशन को लेकर रहता है।
हरिद्वार से प्रातः 6:30 पर निकलकर हम सायं चार बजे सोनप्रयाग पहुँच गए। सोनप्रयाग वह जगह है, जहाँ केदारनाथ की यात्रा का पंजीकरण सत्यापन होता है। आपकी गाड़ी को यहीं तक जाने दिया जाता है। सोनप्रयाग पंजीकरण स्थल से सटा हुआ सीतापुर कस्बा है। अधिकतर होटल सीतापुर में ही हैं। हरिद्वार से सोनप्रयाग के बीच में पहला रमणीक स्थल देवप्रयाग है, जहाँ भागीरथी और अलकनंदा नदियों का अद्भुत संगम है। देवप्रयाग में दोनों का संगम देखना एक रोमांचक अनुभव है। भागरथी तेज गति से आती है, जबकि अलकनंदा धीमी। लोग कहते हैं कि भागीरथी सास है और अलकनंदा बहू। सास के सामने बहू धीमे चलती है। लेकिन सास-बहू का यह संगम बहुत लुभाता है। यहीं से दोनों मिलकर गंगा बन जाती हैं!
Kedarnath Trek
सीतापुर होटल से हम सुबह छह बजे तक निकल गए। पंजीकरण सत्यापन कार्यालय तक गाड़ी ने छोड़ दिया। वहाँ अपना पंजीकरण-पत्र स्कैन कराया। नदी का पुल पार किया और गौरीकुंड जाने वाली गाड़ी में बैठ गए। यहाँ अपनी गाड़ी ले जाने की अनुमति नहीं है। यहाँ से गौरीकुंड की दूरी 5 किमी है, जिसके लिए बोलैरो या मैक्स गाड़ियाँ चलती हैं। एक गाड़ी में ठूस-ठूसकर दस सवारियाँ भरते हैं। प्रति सवारी 50 रुपया लेते हैं और लगभग 15 मिनट में गौरीकुंड पहुँचा देते हैं। इस रोमांच को महसूस करते हम भी गौरीकुंड पहुँच गए।
केदारनाथ मंदिर से वापसी : हरिशंकर राढ़ी 
योजना के अनुसार हमने एक-एक पिट्ठू बैग ले लिया था, जिसमें आवश्यक सामान तो थे ही, आपदा की आशंका से निपटने के लिए कुछ अतिरिक्त सामान थे। जरूरी किट में एक जोड़ी साफ कपड़े, नहाने-बदलने के कपड़े, सामान्य दवाइयाँ जिनमें बुखार, पेट, उलटी, एलर्जी, प्राथमिक चिकित्सा हेतु पट्टी, बैंडेज, डिटॉल, मरहम, मूव, दर्दनाशक गोलियाँ, ऑक्सीजन की कमी के लिए डायमॉक्स आवश्यक हैं। मोबाइल चार्जर, पॉवर बैंक, टॉर्च, एक चाकू, जुराबें, गरम दस्ताने आवश्यक हैं; हमारे पास थे। साथ में पत्नी हो तो खाने-पीने की चिंता आपको नहीं करनी है। हालाँकि रास्ते में चलताऊ खाद्य पदार्थ मिलते हैं, फिर भी देवी जी ने सूखे मेवे, भुने चने, बिस्कुट और न जाने क्या-क्या रख लिया था। खाद्य पदार्थ उनके बैग में था, बाकी अधिकतर सामान मेरे में।
यहाँ से आगे जरूर पढ़िए। अभी तक तो एक पूर्व तैयारी थी, कुछ कच्ची, कुछ पक्की। अब असली अनुभव आने वाला है। यदि आपको इस मार्ग पर पैदल चलना है, तो कुछ और समझना जरूरी है। दरअसल इस यात्रा में न तो चढ़ाई इतनी दुखी करने वाली है और न मौसम! दुखी तो हम इंसान कहलाने वाले प्राणी ही करते हैं। दुखी करने के लिए पशुओं का शोषण करते हैं और खुद पशु बन जाते हैं। इस मार्ग में तीन बाधाएँ हैं- घोड़े-खच्चर, पालकीवाले और बैग का भार। आप सोनप्रयाग पहुँचे नहीं कि घोड़ेवाले आपको घेरना शुरू कर देंगे- “जी, घोड़ा करेंगे? आप पैदल नहीं जा पाएँगे। आपको सही लगा देंगे! कर लो साहब जी!” एक को आप मना करके दो कदम चले होंगे कि दूसरा आ जाएगा। यह क्रम बेस कैंप तक चलता रहेगा। आप तब तक थककर चूर हो गए रहेंगे और हो सकता है कि आप घोड़ा कर लें!
एक साथ दस-पंद्रह घोड़ों का झुंड निकलेगा। घोड़ेवाला घोड़े की पूँछ खींचता हुआ, मौके-बेमौके उसे सटाक्-सटाक् रसीद करता हुआ भगाएगा। दर्जनों घोडों के गले की घंटियाँ आपका ध्यान तोड़ती हुई गूँज रही होंगी। घोड़ों का झुंड तीव्रगति से आपको पीठ से रगड़ता हुआ निकलेगा। किस घोड़े के धक्के से आप पहाड़ में पिसेंगे या बगल में मंदाकिनी नदी की चार सौ फीट गहरी खाईं में गिरकर स्वर्गारोहण करेंगे, कोई नहीं जानता। घोड़े पर सवार कोई तीर्थयात्री कब घोड़े से टपक पड़ेगा, यह भी कोई नहीं जानता। प्रतिदिन के हिसाब से कुछ यात्री घोड़े की पीठ से टपकते हैं तो कुछ पदयात्री घोड़े की टक्कर से। वापसी में एक बार ऐसी टक्कर मुझे भी लगी थी, किंतु सतर्कता के कारण बच गया। इन घोड़ेवालों पर किसी बात का असर नहीं पड़ता। उन्हें तो बस पाँच-छह घंटे में केदारनाथ पहुँचकर दूसरी सवारी ढूँढ़नी है। निस्संदेह, यदि यह पथ खच्चर-घोड़ारहित हो जाए तो यात्रा की दुश्वारियाँ आधी कम हो जाएँगी।
यदि आप पैदल हैं तो ये आपको कदम-कदम इतना पूछेंगे कि मन होगा कि इन्हें यही डंडा उठाकर मार दें। ऊपर से पीठ पर लटका हुआ पिट्ठू बैग गुरु से गुरुतर होता जाएगा। अब यही सामान अपनी संपत्ति की तुलना में भार लगने लगेगा। यदि बारिश हो गई, जिसकी संभावना हमेशा बनी रहती है तो कोढ़ में खाज। घोड़े पर बैठा तीर्थयात्री कम परेशानी में नहीं। वह तो चल भी रहा है घोड़े और घोड़ेवाले की मरजी से। बार-बार रुक भी नहीं सकता। जीवन में पहली बार घुड़सवारी का मौका इतना आनंदमय नहीं होता।
ठीक है, आप कह सकते हैं कि जो पैदल नहीं चल सकता, उसके लिए घोड़ा जरूरी है। यह तो एक प्रकार का साधन है, सेवा है। न जाने कितने लोगों के लिए रोजगार का बड़ा स्रोत है। बात सही है। किंतु उसकी भी एक सीमा होनी चाहिए। पदयात्रियों की जान और चैन की कीमत पर यह घोड़ा-गुंडई सहन करना आसान नहीं। कुछ बूढे़-बुजुर्ग तो धार्मिक आस्था के कारण जाने को मजबूर हैं, किंतु बीस से चालीस साल के युवाओं की ऐसी क्या मजबूरी है कि बात-बेबात अश्वारोही बनने चले हैं? पता नहीं यह शौक है या फिर स्टेटस सिंबल कि हम पैदल नहीं चलते! कुछ तो चार-छह माह के अबोध बच्चे को गोद में बिठाए अश्वारोहण कर रहे हैं। उन्हें बालक की भी चिंता नहीं।
Mandakini Bridge at Kedarnath Trek
पालकी और टोकरी में यात्री ढोने वालों की संख्या कम नहीं है। इनकी अच्छाई यह है कि ये पदयात्रियों के साथ दुर्व्यवहार नहीं करते। हाँ, इनकी स्थिति पर तरस जरूर आता है। एक पालकी में कोई धर्मयात्री मुर्दा जैसी स्थिति में सिकुड़ा पड़ा है और चार आदमी उस कठिन, घोड़े-खच्चर की लीद व बारिश से फिसलन भरे उबड़-खाबड़ बेडौल पत्थरों वाले मार्ग पर पालकी उठाए, सधे हुए कदमों से चले जा रहे हैं। एक भरे-पूरे आदमी को टोकरी में बिठाकर एक दूसरा आदमी अपने माथे से लटकाए मरे-मरे कदमों से चढ़ रहा है। बेरोजगारी की क्या स्थिति है अपने यहाँ! कितना मजबूर है आदमी एक रोटी के लिए कि जहाँ हम अपने शरीर का भार नहीं उठा पा रहे, वहीं वह किसी अनजान को लादे चला जा रहा है। क्या अंतर है आदमी और खच्चर में?
लगभग तीन किमी रह गया तो कैंप में ठहरने का न्योता देने का क्रम शुरू हो जाता है। बेस कैंप तक आते-आते ऐसी दूकानदारी शुरू हो जाती है। अक्टूबर में सीजन सामान्य होने से इस प्रकार की पूछताछ व प्रस्ताव बढ़ जाता है। हालाँकि इसे अच्छा मानना चाहिए, क्योंकि इस बियाबान में रहने के लिए ये शिविर ही सहजता से उपलब्ध हैं। प्रति व्यक्ति तीन सौ से लेकर हजार रुपये के कैंप उपलब्ध हैं। इसमें कैंप के अंदर ठंड से निपटने के लिए पर्याप्त बिस्तर, रजाइयाँ और कंबल मिल जाते हैं। समस्या शौचालय को लेकर है। यहाँ कैंपों में कॉमन सरकारी शौचालय का प्रयोग करना होता है। अधिकतर में स्वच्छता-सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता। भीड़ अधिक होने पर प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
किसी संबंधी के माध्यम से मुझे एक पंडित जी का नंबर मिल गया था। उनसे बात की और यात्रा की तिथि बताई तो उन्होंने आश्वासन दे दिया था कि अटैच बाथ का एक कमरा दे देंगे। यह बड़ी राहत की बात थी। यह तो वहाँ जाकर पता लगा कि इस सीजन में कमरा वहीं मिल जाता। पंडित जी पूरे रास्ते फोन कर-करके मेरी स्थिति लेते रहे और तसल्ली करते रहे कि ग्राहक भक्त आ रहा है। उनका कमरा खाली नहीं जाएगा। दूसरे यह कि क्या मैं वीआईपी पूजा या विशेष दर्शन करना चाहूँगा? उसके लिए इक्यावन सौ की पर्ची कटेगी और गर्भगृह में ले जाकर पूजा-अभिषेक करवा देंगे। ऊपरी दक्षिणा मिलेगी ही। मैंने मना कर दिया। मुझे सामान्य दर्शन चाहिए। मुझे ऐसी महँगी विशिष्टता का कोई शौक नहीं। ऐसे दर्शन में भी मुझे विश्वास नहीं। पहुँच गया, यही बड़ा काम है।
विशिष्ट पूजा के लिए मना करते ही पंडित जी ने कहा कि कमरा तो मिल जाएगा, लेकिन चार व्यक्तियों के लिए एक कमरे के पाँच हजार रुपये लगेंगे। मैंने हाँ कर दी। प्रांगण में पहुँचा तो वे प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने सुन रखा था कि सुबह दर्शन के लिए चार-पाँच घंटे की लाइन लगती है। दर्शन यदि शाम को हो जाए तो सुबह का झंझट खत्म। मित्र ज्ञानचंद भी इस बात से सहमत थे। पंडित जी से बात की तो बोले अभी दर्शन हो रहे हैं। हमने कमरे में जल्दी से सामान पटका। सौभाग्यशाली तो हम ऐसे निकले कि लाइन में प्रवेश करते ही गेट बंद हो गया। कुल दस मिनट में दर्शन हो गया और हम प्रफुल्लित बाहर निकल आए।
निस्संदेह केदारनाथ मंदिर एक भव्य-दिव्य स्थल है। न जाने कौन-सा चमत्कार था कि हमारी दिन भर की थकान, चिड़चिड़ाहट, नकारात्मकता छू-मंतर हो चुकी थी। हम निहार रहे थे उस स्थल को, जो बहुत दुर्गम होने पर भी आस्था का इतना बड़ा केंद्र बना हुआ है। मैं पर्यटन मानसिकता का हूँ, इसलिए यहाँ पहुँचा हूँ। अधिकतर लोग तो आस्था के कारण इतना कष्ट उठाकर आते हैं। 2013 की आपदा के बावजूद यात्रियों संख्या में बढ़ोतरी हुई है।
केदारनाथ मार्ग पर मन्दाकिनी पुल
पर हरिशंकर राढ़ी 
मंदिर के आसपास कुछ भवन, कुछ अस्थायी दूकानें हैं। लोगबाग ऊर्जा से भरे इधर-उधर आ जा रहे हैं। आज भी केदारनाथ पहुँचने वालों में 75 प्रतिशत से अधिक पदयात्री हैं। बूढ़े-बुजुर्ग हैं। सबको लग रहा है जैसे कठिन यात्रा का पारिश्रमिक उम्मीद से अधिक मिल गया है। आखिर इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा। लोग मोबाइल से फोटो खींच रहे हैं, अपने प्रियजनों को वीडियो कॉलिंग करके मंदिर का दर्शन करवा रहे हैं। कितनी जीवंतता है!
पंडित जी ने कहा, “रात में दो बजे उठ जाइएगा। शाम के दर्शन का विशेष लाभ नहीं है। मैं जगा दूँगा। गरम पानी की बालटी दिलवा दूँगा (जिसका प्रति बालटी 150 रुपया लगेगा)। ढाई बजे लाइन में लग जाएँगे तो छह बजे तक दर्शन हो जाएगा। गर्भगृह में दर्शन होगा। अपना जल चढ़ा सकते हैं। पाँच-छह बजे लगेंगे तो दस बजे दर्शन होगा। या तो पर्ची कटवा लीजिए, इक्यावन सौ में रात बारह बजे विशेष पूजा और दर्शन करवा देंगे।” मेरी इच्छा नहीं है। एक बार दर्शन हो चुका है। रात में दो बजे कौन उठेगा? अपने वश की तो नहीं। अब सुबह आराम से उठेंगे, भीड़ नहीं होगी तो दर्शन कर लेंगे; अन्यथा घूम-फिरकर रास्ता पकड़ेंगे। पैसा देकर दुबारा दर्शन न करने का निर्णय देखकर पंडित जी कुढ़ते हैं। उन्हें मैं या तो बहुत बड़ा कंजूस लगता हूँ या बौड़म। कहते हैं कि ठीक है, दस बजे कमरा खाली कर दीजिएगा। मैं बता देता हूँ कि नौ बजे खाली कर दूँगा।

मंदिर बंद हो चुका है और ढंड बढ़ गई है। ढोकर लाए हुए गरम कपड़े अब सुखद लग रहे हैं। अच्छा किया जो ले आया। अब भोजनालय बंद होने को हैं, सो जल्दी चलकर कुछ खाया जाए। पूरा दिन तो चाय, मैगी, नीबू-पानी पर निकला है। अब रोटी चाहिए। एक ढाबे पर जाते हैं। दो सौ रुपये में एक थाली उपलब्ध है। दाल, आलू सोयाबीन की सब्जी, चावल और चार रोटी। जगह के हिसाब से सस्ती है। सामान यहाँ तक लाने में कितनी ढुलाई देनी पड़ती है! एक व्यावसायिक गैस सिलिंडर यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते साढे चार हजार का हो जाता है। दो हजार तो उसकी ढुलाई ही लग जाती है। जहाँ एक बोतल पानी सौ रुपये में मिल रहा हो, वहाँ दो सौ की थाली तो सस्ती ही है। हम सभी खाकर ढंड में काँपते कमरे में आ जाते हैं।
निश्चित कर लिया था कि दो बजे नहीं उठेंगे। हम इतना नहीं कर सकते। शरीर समर्थन नहीं दे रहा। यह रात बहुत कष्टप्रद निकली। चारों में किसी को नींद नहीं, कोशिश सभी कर रहे हैं। कह कोई नहीं रहा। तबीयत बेचैन है। रात के डेढ़ बज रहे हैं। सोच रहा था कि अब कभी ऐसी यात्रा नहीं करूँगा। जहाँ इतनी लंबी लाइन हो, वहाँ तो कतई नहीं जाऊँगा। बेचैनी बढ़ी तो श्रीमती जी को जगाकर बाम माँगा और लगाया। कुछ चक्कर-सा आ रहा है। शायद ऑक्सीजन स्तर कम है, या थकान है। उठकर दवा निकाली। सबने बुखार-दर्द की एक-एक गोली खाई और लेट गए। कुछ चैन तो मिला। उस ढंड में भी एक बोतल पानी पी गया।
सुबह हम दर्शन को नहीं गए। दो बजे कोई उठाने भी आया था। हमने मना कर दिया। सही सलामत लौटना भी है। छह बजे के बाद तैयार होकर निकले। इतनी सुहानी सुबहें कम होती हैं। मंदिर के पीछे की चोटी पर बरफ सोने-चाँदी जैसी चमक रही थी। कभी यही बादल फटा था और पूरे केदारनाथ को लील लिया था। बस एक मंदिर बचा था। उसके पीछे की भीमशिला ने बचा लिया था। वह अभी भी है। उसके पीछे एक कंपनी का हेलीपैड है। पास में ही शंकराचार्य की समाधि है, जिसका निर्माण अभी हाल में हुआ है। एक तरफ एक विशाल झरना गिर रहा है। पास से ही मंदाकिनी नदी गाती-बजाती बह रही है। क्या दृश्य है!
हम भीड़ का जायजा लेते हैं। नहीं, नौ बजे के पहले नंबर नहीं आएगा। एक दूकान पर जाते हैं। तीस रुपये का एक समोसा और इतने की ही चाय है। इसे सस्ता कहा जाएगा। इससे दो-तीन गुना महँगी चाय तो दिल्ली के मॉल में है। ये बेचारे कितना श्रम कर रहे हैं। एक प्रकार की तपस्या ही है। चाय-समोसे का स्वाद लेकर, दूकानदार से बातचीत करके कुछ खरीदारी करते हैं। नौ बजे निकल देना है। मन होता है कि इस दिन, इस तिथि और समय को कहीं टाँक लूँ। पता नहीं फिर कभी आना होगा या नहीं! मन तो यह भी था कि दो-तीन दिन रहते तो कितना अच्छा होता! मेरे पास समय की कमी नहीं। लेकिन उधर टैक्सीवाले का किराया 2800/ के हिसाब से बढ़ रहा है। दो दिन में उसके बैठे-ठाले 5600/ बन गए और हमारे बिगड़ गए। रुकना तो तभी संभव है, जब आदमी अपनी गाड़ी या सार्वजनिक परिवहन से गया हो। फिर केदारनाथ में ठहरने के लिए एक रात का पाँच हजार ढीला करना पडे़गा। मन का क्या है, मन तो होता ही है फिसलने के लिए!
पता नहीं उस प्रकृति में ऐसा क्या है कि मार्ग में आने वाली कठिनाइयों एवं कमजोरियों का प्रभाव अब तक हवा हो गया था। हम एकदम तरोताजा लग रहे थे। आनंद तो आया था। कठिनाइयों का अपना एक आनंद होता है, जिसकी अनुभूति बाद में होती है। बिना परिश्रम के अच्छी चीजें मिलती कहाँ हैं? चढ़ाई और महँगाई का कष्ट न जाने किस दुनिया में बिला गया था। केदारनाथ धाम को, उसके पीछे चमकते पहाड़ को और नैसर्गिक सौंदर्य को प्रणाम किया और चल पड़े। मंदाकिनी तो अभी साथ-साथ ही चलेगी। उसे गौरीकुंड में प्रणाम कर लेंगे।
वापसी में समय कम लगता है, फिर भी तो रास्ता वही है। घोड़े-खच्चर, मौसम तथा बैग वही है। उतराई में सँभलना बहुत पड़ता है। अपनी-अपनी लाठी सँभाली और ठेगे-ठेगे चल पड़े- एक और कष्टमय आनंद के लिए!

Saturday, March 28, 2020

Darshan, Drushti aur Paaon

दर्शन, दृष्टि और पाँव
                                                                       - हरिशंकर राढ़ी 







दर्शन, दृष्टि और पाँव का कवर 







आज मेरे यात्रा संस्मरण ‘दर्शन, दृष्टि और पाँव’ की लेखकीय प्रतियाँ प्राप्त हुईं। वैसे तो यह पुस्तक अगस्त 2019 में ही प्रकाशित होकर आ गई थी किंतु तब कुछ ही प्रतियाँ मिली थीं। इस संस्मरण को विमोचन का सौभाग्य साहित्य मनीषी प्रो0 रामदरश मिश्र के हाथों उनके जन्मदिन के अवसर पर मिला था। प्रो0 मिश्र जी के जन्मदिन पर वरिष्ठ कवि-आलोचक ओम निश्चल, नरेश शांडिल्य, अलका सिन्हा, डाॅ0 वेदमित्र शुक्ल, उपेन्द्र कुमार मिश्र एवं अन्य ख्यातिलब्ध साहित्यकार उपस्थित थे जिन्होंने इसके विमोचन को मेरे लिए गौरवपूर्ण बनाया। इसके बाद किन्ही कारणों से शेष प्रतियाँ आने में विलंब हो गया।






                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  इस संस्मरण में कुल दस ज्योतिर्लिंगों की यात्रा के साथ कन्याकुमारी, द्वारिका पुरी, मदुराई, सिक्किम, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, अजंता-एलोरा, पचमढ़ी, खजुराहो जैसे अनेक स्थानों का संस्मरण संकलित है। लगभग 240 पृष्ठों की इस पुस्तक को मनीष पब्लिकेशंस नई दिल्ली ने बहुत रुचिपूर्वक प्रकाशित किया है।

Nizamabad aur Sheetla Mata Mandir




निज़ामाबाद और शीतला माता

                              -हरिशंकर राढ़ी 


शीतला माता मंदिर निज़ामाबाद (आजमगढ़ )       छाया : हरिशंकर राढ़ी 
हमारे देश में न जाने कितने ऐसे धार्मिक स्थल हैं जहाँ विशाल संख्या में श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है। इससे न केवल आमजन का पर्यटन हो जाता हैअपितु उन स्थानों पर हजारों लोगों की जीविका का साधन बनता है। ऐसा ही एक धार्मिक स्थल आजमगढ़ के निज़ामाबाद में स्थित शीतला माता का मंदिर है।


निज़ामाबाद आजमगढ़ जनपद के लगभग मध्य में है। सुना बहुत था
जाने का संयोग कभी नहीं बना। हरी-भरी फसलों के बीच प्रकृति के वैभव का आनंद लेते हम निजामबाद स्थित शीतला माता के मंदिर पहुँच गए। यहाँ मेरा आना पहली बार हुआ। प्रथम दृष्टि  ही विश्वास हो गया कि इस मंदिर पर श्रद्धालुओं का आना-जाना बड़ी संख्या में होगा। कुल मिलाकर ग्रामीण परिवेश में बड़ा प्रंागण। हरे-भरे छायादार वृक्ष और प्रसाद बेचने वालों के अनगिनत ठीहे। हिंदू धर्म में लगभग सभी देवी-देवताओं के दिन निश्चित किए हुए हैं। देवी दुर्गा से संबंधित दिन प्रायः सोमवार या वृहस्पतिवार माना जाता है। जहाँ इतने देवी-देवता होंगेऐसी व्यवस्था बनानी ही पड़ेगी। जिस दिन हम पहुँचेवह किसी मेले या दर्शन का दिन नहीं था। यह मेरे लिए सुकून था। पूरा प्रांगण खाली। एक ही प्रसाद वाला था। उसकी प्रत्याशा देखकर हमने प्रसाद लिया और दर्शन के लिए गर्भगृह पहुँच गए।

शीतला माता का मंदिर विशाल नहीं हैलेकिन महत्त्व बड़ा जरूर है। जनश्रुतियों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण 250-300 वर्ष पूर्व हुआ था। कहा जाता है कि सन् 1825-30 ई0 के लगभग राजा मुरार सिंह ने शीतला माता का मंदिर बनवाया। यह कार्य उन्होंने पुत्र प्राप्ति की मनोकामना पूरी होने के बाद किया था। तब यहाँ घना जंगल था जिसमें पलाश की बहुतायत थी। अब यह धाम निज़ामाबाद मुख्य बाजार में पीछे की तरफ स्थित है। निज़ामाबाद आजमगढ़ से लगभग 18 किमी तथा कप्तानगंज से 23 किमी की दूरी पर स्थित है। नवरात्रों में ठसाठस भीड़ होती है। हजारों भक्त माँ से मनोकामना पूर्ति की आकांक्षा लेकर आते हैं। कड़ाही चढ़ती है और मन्नतें पूरी की जाती हैं। बच्चों के मुंडन संस्कार होते हैं।
शीतला माता मंदिर निज़ामाबाद में लेखक       छाया : हरिशंकर राढ़ी 
जनहित इंडिया पत्रिका के सितंबर 2018 अंक में निज़ामाबाद के इतिहास पर प्रताप गोपेंद्र का एक लेख छपा है जो निज़ामाबाद के विषय में पुष्ट एवं व्यापक जानकारी देता है। प्रताप गोपेंद्र उत्तर प्रदेश पुलिस में अधिकारी हैं। आजमगढ़ के मूल निवासी हैं वे और आजमगढ़ के इतिहास पर उनकी गहन शोधपरक पुस्तक प्रकाशित होने जा रही है। सन् 1856 मंे निज़ामाबाद में वर्नाकुलर मिडिल स्कूल खोला गया जिसमें राहुल सांकृत्यायन तथा अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध जैसी महाविभूतियों ने शिक्षा प्राप्त की।

धार्मिक-ऐतिहासिक पक्षों को उपेक्षित करते हुए मेरा मन हरिऔधतथा सांकृत्यायन पर अटक गया। यह क्षेत्र हिंदी साहित्य को खड़ी बोली कविता का संस्कार देने वाले हरिऔध जी का है। उनका प्रिय प्रवास हिंदी काव्य जगत में मील का पत्थर साबित हुआ। हरिऔध जी का जन्म निज़ामाबाद में ही सन् 1865 में हुआ था।

शीतला माता मंदिर प्रांगण  निज़ामाबाद       छाया : हरिशंकर राढ़ी 
हरिऔधजी का निज़ामाबाद प्रेम कभी कम नहीं हुआ। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने कानूनगो की नौकरी की और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। अंततः सेवानिवृत्ति के बाद हरिऔध जी ने निज़ामाबाद के उसी मिडिल स्कूल में अवैतनिक अध्यापन किया जिसमें उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की थी। तब बहुत गर्व होता था कि ऐसा महान कवि हमारे आज़मगढ़ का है। गर्व तो अभी भी होता है किंतु दुख इस बात का होता है कि साहित्यिक राजनीति के चलते ऐसे कवियों को पाठ्यक्रम से बाहर किया जा रहा है और पाठ्यक्रम से बाहर किसी कवि के विषय में सबको जानकारी हो जाएयह मुश्किल लगता है।

यायावरी साहित्य को पहली बार हिंदी साहित्य में लाने वालेबहुभाषाविज्ञता एवं ज्ञान के चरमोत्कर्ष तक जाने महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने भी निज़ामाबाद क्षेत्र के यश में  वृद्धि की। सांकृत्यायन का जन्म ननिहाल पंदहा में हुआ था जो रानी की सराय के पास है। निज़ामाबाद में स्थित वर्नाकुलर मिडिल स्कूल में उन्होंने भी शिक्षा प्राप्त की। ननिहाल में बैल की विक्री से प्राप्त 22 रुपये चुराकर वे यायावरी पर निकल पड़े और पूरे विश्व में आज़मगढ़ ही नहींदेश की पताका फहराई।

आज आजमगढ़ की बात आती है तो न जाने किन असामाजिक तत्त्वों की चर्चा होती है। कुछ प्रसिद्ध शायरों से आज़मगढ़ की पहचान बनाई जाती है किंतु हरिऔधऔर सांकृत्यायन जैसे उपेक्षित हो जाते हैं। निज़ामाबाद का जिक्र डाॅ0 तुलसीराम अपनी आत्मकथा मुर्दहियामें करते हैं। वे जहानागंज के थे। मैंने मुर्दहिया पूरी पढ़ी हुई है। साठ-सत्तर के दशक के आज़मगढ़ के ग्रामीण जीवन का जीवंत है दस्तावेज है यह आत्मकथा। भयंकर गरीबी और सामाजिक बहिष्कार का दंश झेलते दलितों ही नहींअन्य वर्गों एवं तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था का जो सजीव चित्र डाॅ0 तुलसीराम ने खींचा हैवह अन्यत्र दुर्लभ है।

शीतला माता मंदिर प्रांगण  निज़ामाबाद  में  सपरिवार      
भारत की ग्रामीण संस्कृति में ऐसे स्थलों का धार्मिक या पौराणिक महत्त्च जो भी होये एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक वातायन होते हैं। यद्यपि आज ग्रामीण स्त्रियाँ भी धनार्जन के लिए बाहर जा रही हैंफिर भी महिलाओं की एक बड़ी आबादी घरों की चारदीवारी में कैद हो अपने पारिवारिक दायित्व में ही पूरा जीवन खपा देती हैं। बहुतों की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं होती और न इतनी बड़ी सामाजिक स्वीकृति ही होती है कि वे दूर देश भ्रमण हेतु जा सकें। ऐसी स्थिति में ये देवालय ही उनके लिए बाह्य जगत से संपर्क सूत्र होते हैं। दर्शन-पूजन के बहाने उन्हें बाहर निकलने का मौका मिलता है और वे ऊर्जस्वित हो पाती हैं। कुछ दशकों पहले गाँवों में लगने वाले मेले उनकी व्यक्तिगत जरूरतों एवं शृंगार प्रसाधनों के क्रयकेंद्र हुआ करते थे। प्रतिबंधों की मर्यादा को मानते हुए वे विशेष परिस्थिति में अपनी बहनों या माँ से यहीं मिल पाती थीं।

निज़ामाबाद आज़मगढ़ का एक ऐतिहासिक स्थल है। यहाँ के मृद्भांडों की कला देश-विदेश में प्रसिद्ध है। यह बात अलग है कि मृद्भांड अब केवल पुरातत्व की वस्तु रह गए हैं और इनकी कला की कोई स्थानीय पूछ नहीं रह गई। अब तो बड़ी फैक्ट्रियों में बनने वाली थर्मोकोल की पर्यावरण नाशक पत्तलों एवं प्लास्टिक की गिलासों ने कुम्हारों को दुर्दशा में ला पटका है।

Tuesday, October 30, 2018

Bhimashanker Jyotirlinga Darshan

यात्रा वृत्तांत

भक्ति और प्रकृति का अनूठा संगम: भीमाशंकर

                                                         -हरिशंकर राढ़ी

भीमाशंकर मंदिर का एक विहंगम दृश्य                             छाया : हरिशंकर राढ़ी 
भीमाशंकर की पहाड़ियाँ और वन क्षेत्र शुरू होते ही किसी संुदर प्राकृतिक और आध्यात्मिक तिलिस्म का आभास होने लग जाता है। सहयाद्रि पर्वतमाला में स्थित भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग कई मामलों में अन्य ज्योर्तिलिंगों से अलग है, और उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि यह आरक्षित वन क्षेत्र में स्थित है, जिसके कारण इसका अंधाधुंध शहरीकरण नहीं हो पाया है। यह आज भी पर्यटकीय ‘सुविधओं’ के प्रकोप से बचा विचित्र सा आनंद देता है। वैसे सर्पीली पर्वतीय सड़कों पर वाहन की चढ़ाई शुरू होते ही ऐसा अनुमान होता है कि हम किसी हिल स्टेशन की ओर जा रहे हैं और कुछ ऐसे ही आनंद की कल्पना करने लगते हैं। किंतु वहां जाकर यदि कुछ मिलता है तो केवल और केवल भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग तथा साथ में समृद्धि प्रकृति का साक्षात्कार। पुणे से लगभग सवा सौ किलोमीटर की कुल दूरी में पर्वतीय क्षेत्र का हिस्सा बहुत अधिक नहीं है, किंतु जितना भी है, अपने आप में बहुत ही रोमांचक और मनोहर है।


भीमाशंकर मंदिर का सम्मुख दृश्य           छाया : हरिशंकर राढ़ी 
                                                                                                                                                     जनवरी का महीना था। दिल्ली में भयंकर ठंड पड़ रही थी। उसपर हमारी गाड़ी सुबह की थी। दिल्ली से प्रातःकाल निकली हमारी ट्रेन पुणे अगले दिन करीब 11 बजे पहुँची तो वहां मौसम एकदम सुहावना था। सर्दी का नामो-निशान नहीं, बल्कि हाल यह था दिल्ली से पहने हुए गरम कपड़े बोझ लग रहे थे और ट्रेन में ही उन्हें निकाल देना पड़ा। मेरे एक दूर के रिश्तेदार मिश्र जी रेलवे स्टेशन पर हमें लेने पहुंचे हुए थे। मैं और मेरे एक मित्र, हम कुल दो जने थे। मिश्र जी मेरे मित्र के गांव के हैं और पुणे में ही रहते हैं। इसलिए नई जगह की दिक्कतों का हमें सामना नहीं करना पड़ा।

भीमाशंकर मंदिर का प्रातः दृश्य          छाया : हरिशंकर राढ़ी 
पुणे से भीमाशंकर तक की यात्रा हमें बस से करनी थी, वह भी प्राथमिकता के आधार पर सरकारी बस से। सरकारी बसें भौतिक रूप से भले ही थोड़ी खराब हों और औसत आय के लोग यात्रा करते हों, इनपर विश्वास किया जा सकता है और ये सुरक्षित भी होती हैं। यद्यपि यात्रा प्रारंभ करने से पूर्व ही मैंने बहुत सी जानकारियां जुटा लीं थीं, फिर भी कुछ अधूरा तो रह ही जाना था। पुणे में रिश्तेदार पहले तो अपने यहां चलने की बात पर अड़े, लेकिन इस प्रतिज्ञा पर कि अगले दिन हम लौटकर उन्हीं के यहां ठहरेंगे और पुणे घूमेंगे, वे मान गए। पुणे में दो बस अड्डे हैं - शिवाजी नगर और स्वार गेट। भीमाशंकर, महाबलेश्वर आदि के लिए बसंे स्वार गेट बस अड्डे से जाती हैं। स्वार गेट बस अड्डा रेलवे स्टेशन से लगभग दस-बारह किलोमीटर होगा। यही ज्ञान हमारी अगली महाबलेश्वर यात्रा में काम आया।

स्वार गेट बस अड्डे से भीमाशंकर के लिए महाराष्ट्र रोडवेज की एक बस मिल गई। लगभग एक बजे यह बस पुणे से भीमाशंकर के लिए चल पड़ी और हम शहर  से निकलते ही यात्रा का आनंद लेने लगे। राश्ट्रीय राजमार्ग संख्या 60 से होते हुए बस गंतव्य की ओर दौड़ने लगी। जनवरी का महीना था और सड़क के दोनों किनारों पर हरी-भरी फसलें लहलहा रही थीं। इस क्षेत्र में रबी के मौसम में भी मक्के की खेती होती है। खेतों में चरते हुए पशुओं के झंुड, सुखद हवा और रम्य वातावरण यात्रा को सुखद बना रहे थे। बस सरकारी थी और भरी हुई थी। जगह-जगह सवारियों को उतारते चढ़ाते हुए चल रही थी। दक्षिण भारत की अनेक यात्राओं में मैंने देखा कि लंबी दूरी की सरकारी बसें चलती तो तेज हैं किंतु रास्ते भर सवारियां उतारती-चढ़ाती हैं और अपने यहां की भाषा में कहें तो लोकल का आनंद देती हैं। पुणे से आगे निकलने के बाद भीमाशंकर जाने के दो रास्ते हो जाते हैं। एक रास्त घोड़ेगांव होकर जाता है तो दूसरा मंचर होकर। जहां तक मुझे याद है, मेरी बस मंचर होकर गई थी और वहां लंबा विश्राम भी लिया था।

भीमाशंकर पहुंचे तो शाम के लगभग पांच बज रहे होंगे। मुझे अंदाजा था कि यहां भी अन्य तीर्थस्थलों या पर्यटन स्थलों की तरह होटलों के एजेंट घेरेंगे, पकाएंगे और होटल के लिए जान मुश्किल में कर देेंगे। लेकिन यहां तो स्थिति कुछ उलटी ही थी। एक सूना-सूना सा स्थान, केवल कुछ बसें खड़ीं, उनमें से भी पर्यटक बसों की संख्या अधिक। न कोई भीड़-भाड़ और न कोई पूछने वाला। बस से उतरकर शरीर सीधा किया। मंदिर का रास्ता पूछा और आगे बढ़ गए। अनजान जगह पर पूछताछ करना ठीक होता है, लेकिन एक सीमा तक। ज्यादा पूछने में भी आपके अनाड़ीपने की बू आती है। यहां तो न कोई बाजार जैसा माहौल, न अट्टालिकाएं और न होटलों की लाइने। खैर, हम दोनों थोड़ी दूर आगे बढ़े तो एक बुझे से आदमी ने मरे से स्वर में पूछा -‘होटल लेना है?’ हमने जवाब नहीं दिया और आगे बढ़ गए। फिर भी उसने अपने तईं एक मरी सी गली की ओर इशारा कर दिया और जो हम सुन सके, उसने कहा कि यहां आपको अच्छे होटल नहीं मिलेंगे, आपको यहीं आना पड़ेगा। साथ में जो सज्जन थे, षांत रहना और धैर्य रखना उनके लिए बहुत ही मुश्किल है, किंतु मेरी वजह से ज्यादा सक्रियता नहीं दिखा पा रहे थे। हम उस बुझे आदमी को अनसुना करके आगे बढ़ गए।

और उसकी बात सच निकली कि वहां अच्छे होटल नहीं मिलेंगे। जो एक - दो मिले, उन्हें होटल नहीं कह सकते थे। किसी के घर की दूसरी मंजिल पर अस्थायी सा एक ढांचा - पटिया, चद्दर या किसी ऐसी ही सामग्री से बना हुआ एक या दो कमरा जिसमें गुजारा हो सके या जिसे किसी तरह छत का नाम दिया जा सके। एक ऐसे ही सुरंगनुमा ‘होटल’ में घुसे और किराया पूछा तो कुछ घृणा जैसी मनःस्थिति पैदा हुई। लुब्बे-लुवाब यह कि वहां से खिसकना पड़ा - इस निःशुल्क चेतावनी के साथ कि बाद में आएंगे तो यह भी नहीं मिलेगा और यह कि यहां होटल नहीं हैं। यह इलाका वनक्षेत्र संरक्षित है और यहां निर्माण की अनुमति नहीं हैं। वहां से निकले तो मेरा मन हुआ कि पहले वाले को ही देख लिया जाए। तब तक मित्र महोदय को एक धर्मशाला नजर आ गई और उनके कदम उधर ही बढ़ गए। धर्मशाले के बाहरी रूप रंग से ही मुझे अनुमान लग गया कि यहां तो गुजारा हो नहीं सकता। समय ही व्यर्थ करने हम जा रहे हैं क्योंकि मित्र महोदय को अनुमान से अधिक सीधी बात पर भरोसा था। अनमने मन से हमारा स्वागत हुआ। बताया गया कि कमरा तो मिल जाएगा, किराया सौ या डेढ़ सौ लगेगा।  इससे पहले कि कमरा देखा जाए, जनाब ने बताया कि शौच के लिए जंगल में जाना पड़ेगा। यहां शौचालय नहीं है। क्यों ? इसलिए कि यहां पानी की भीषण समस्या है और पानी पांच किलोमीटर दूर से रिक्शे - रेहड़ी पर केन में भरकर लाया जाता है। उम्र का एक बड़ा हिस्सा उत्तर भारत के एक सुविधाहीन गांव में बिना शौचालय के गुजारने के बावजूद इस अनजान अभयारण्य में साहस नहीं हुआ। अंधेरा घिर रहा था और समीप के जंगल से गीदड़ और न जाने किन -किन जानवरों की आवाजें आ रही थीं।

भीमाशंकर मंदिर के पृष्ठ में हरिशंकर राढ़ी              
अब मैंने और अधिक समय गंवाए बिना, जल्दी से पहले वाले मरे से आदमी की गली में भागना उचित समझा। खैर यह जल्दबाजी कुछ हद तक कामयाब रही क्योंकि पहुंचते-पहुंचते एक तीन विस्तरों वाला कमरा हमें मिल गया। दो विस्तरों का कमरा उठ चुका था। लिहाजा उस लाॅज में (संभवतः जिसका नाम चेतन लाॅज था) तीन विस्तरों वाला कमरा ले लेने में ही भलाई थी। किराया छह सौ रुपये। मित्र ने मोलभाव किया तो इतना ही हो पाया कि वह छह सौ में ही चार-पांच बाल्टी पानी दे देगा। पानी का वही रोना कि एक बाल्टी पानी वहां पर बीस या पच्चीस रुपये का। और यह भी कि मंदिर में दर्शन हेतु जाने से पूर्व भोर में ही वह नहाने के लिए दो बाल्टी पानी गरम भी कर देगा। हाँ, शौचालय था किंतु अटैच नहीं, काॅमन।

भीमाशंकर के दर्शन: तथाकथित लाॅज में अपना-अपना बैग फेंक व हाथ-मुंह  धोकर हम भीमाशंकर के दर्शन के लिए निकल पड़े। बड़ी मुश्किल से पांच सौ मीटर दूर रहा होगा वह लाॅज से। हाँ, मंदिर काफी नीचे है और लगभग दो सौ सीढ़ियां उतरनी पड़ती हैं। सीढ़ियां बहुत चैड़ी हैं और लगातार नहीं हैं, इसलिए अधिक कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता है।

मंदिर एक तरह से तलहटी में है। इसकी प्राचीनता इसकी दीवारों और बनावट से जाहिर हो जाती है। मंदिर आकार- प्रकार में बहुत विशाल तो नहीं है किंतु बनावट एवं महत्त्व के कारण एक गहन आध्यात्मिक वातावरण की अनुभूति अवश्य कराता है। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है जो आकार में छोटा ही है। अन्य मंदिरों की भांति इसमें गर्भगृह के सम्मुख एक मंडपम है जिसमें ज्योतिर्लिंग की दिशा में नंदी की मूर्ति है। दीवारों से छत तक पत्थर के टुकड़ों से निर्मित है और दक्षिण भारतीय नागरा शैली को अपनाया गया है।

जब हम पहुँचे तो अंधेरा घिर रहा था। सायंकालीन आरती की तैयारियाँ हो रही थीं। मंदिर में कम ही भक्त उपस्थित थे। संभवतः अधिकांश यात्री दर्शनोपरांत शाम तक वापस लौट जाते हैं क्योंकि ठहरने की समस्या तो है ही। स्थानीय आबादी भी कम है और जिस दिन हम गए थे, उस दिन न कोई पर्व और न त्योहार। अतः जिस तरह की शांति किसी मंदिर में होनी चाहिए, वैसी ही थी। आरती के बाद मित्र ने पुजारी से बात की तो उसने अगले दिन एकदम प्रातः आने की सलाह दी। प्रातःकालीन शृंगार से पूर्व लिंग का रजत आवरण हटाकर सफाई की जाती है और उस समय के दर्शन को कुछ लोग बहुत अधिक महत्त्व देते हैं। जैसा कि मैंने पहले ही बताया, मित्र अत्यंत धार्मिक स्वभाव के हैं, इसलिए यह तय किया गया कि अगली सुबह चार बजे ही मंदिर परिसर में उपस्थित हो जाएंगे।

जिस प्रकार भीमाशंकर में ठहरने के विकल्प सीमित हैं, उसी प्रकार भोजन के लिए भी विकल्प सीमित हैं। ले-देकर एक ढाबा जैसा भोजनालय जिसमें दाल-रोटी और एक - दो सब्जी ही उपलब्ध थी। रेस्तरां का तो दूर-दूर तक नामो-निशान नहीं। खैर, मेरे लिए इतना बहुत है, समस्या उन लोगों के लिए है जिनके लिए भोजन बहुत बड़ी चीज है और जो बहुत महंगा और विविधतापूर्ण आहार लेकर ही स्वयं को धन्य और बड़ा मानते हैं। जो भी था, खा-पीकर हमने तीन बजे प्रातः का अलार्म लगाया और सो गए।

प्रातः दर्शन: भोर में समयानुसार उठकर हमने लाॅज मालिक को जगाया और गरम पानी की मांग की। ठंड तो ज्यादा नहीं थी, फिर भी सामान्य पानी से नहाना संभव नहीं था, सामान्य पानी भी उसी के पास था। जब तक अन्य कार्यों से हम निवृत्त हों, उसने एक-एक करके दो छोटी बाल्टी गरम पानी उपलब्ध करा दिया। मजे की बात यह हुई कि पानी कुछ अधिक ही गरम हो गया था और हमारे पास ठंडा पानी था नहीं कि उसे मिलाकर सामान्य कर लें। जैसे-तैसे बच-बचाकर नहाने की औपचारिकता पूरी की गई और हम एक बार पुनः अंधेरे में सीढ़ियाँ उतरते, कुत्तों की भौंक खाते मंदिर परिसर में उपस्थित।
भीमाशंकर मंदिर की सीढ़ियों का दृश्य          छाया : हरिशंकर राढ़ी 
प्रातःकालीन दर्शन अपेक्षा के अनुरूप रहा। मित्र ने पुजारी से अग्रिम परिचय कर लिया था, सो पूजा-दर्शन उन्होंने मन से कराया। भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग में पुजारियों की लूट-पाट का कोई आंतक नहीं है। कम से कम हमें तो कोई भी ऐसा पंडित-पुजारी नहीं मिला जिसने पैसे की मांग की हो या भोजन इत्यादि के नाम पर उगाही करनी चाही हो। जो भी दिया, स्वेच्छा या बलपूर्वक ही दिया। बहुत अच्छा लगी यह स्थिति। प्रातःकाल मंदिर का प्रांगण बहुत ही सुंदर लग रहा था और दूर मंदिर से ऊँचाई पर फैली पहाड़ियां वातावरण को मनोरम बना रही थीं। चहुंओर प्राकृतिक हरीतिमा एक अलग ही रंग जमा रही थी। सुबह की गुनगुनी धूप प्रांगण में ही रोके रखना चाहती थी। धीरे-धीरे भक्तों की संख्या बढ़ने लगी थी। नौ-दस बजे तक पुणे और अन्य नगरों से यात्री पहुंचने लगते हैं और देखते-देखते भीमाशंकर की नीरवता चहल-पहल में बदल जाती है। दोपहर बाद हमें पुणे लौटना था। अभी कुछ अन्य जगहें भी घूमनी थीं, इसलिए हम भीमाशंकर लिंग को प्रणाम कर वापसी की सीढ़ियां चढ़ने लगे। हमारे मन और होठों पर भीमाशंकर स्त्रोत बार-बार आ रहा था। सीढ़ियों पर प्रसाद स्वरूप ताजा बनते हुए पेड़े, औटता हुआ दूध बहुत ही लुभाता है और पेड़े खरीदने से षायद ही कोई बच पाता हो। न जाने फिर कब आना होगा इस भूमि पर, यही सोचते और भीमाशंकर स्त्रोत को सुनते हम अपने तल पर एक बार फिर वापस।

यं डाकिनीशाकिनिकासमाजे निशेव्यमाणं पिशिताशनैश्च।
सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शंकरं भक्तहितं नमामि।।


भीमा नदी के उद्गम की ओर  वनपथ  
भीमा उद्गम की ओर: भीमाशंकर वस्तुतः भीमा नदी के उद्गम पर बसा हुआ है और इसी कारण इस ज्योतिर्लिंग का नाम भीमाशंकर है। भीमाशंकर एक बहुत बड़ा वनक्षेत्र तो है ही, भीमा नदी का उद्गम भी यहीं है। कथा के अनुसार भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति भीमा नदी के उद्गम पर ही है जो मंदिर से लगभग दो किलोमीटर से अधिक दूरी पर गहन वन में स्थित है। पगडंडियों से ही जाना होता है और वन में हिंसक जन्तु भी रहते हैं। एक बार रास्ता भटके तो लौटना बहुत ही कठिन। जहां हमने चाय पी, वहीं मालूम हुआ कि भीमा नदी के उद्गम तक पथ प्रदर्शक के रूप में किसी न किसी को ले जाना पड़ेगा। अब तो पूरा ध्यान नहीं है, लेकिन दूकानदार ने ही एक 12-14 साल का लड़का सौ - दो सौ रुपये में हमारे साथ गाइड के तौर पर लगा दिया। लड़का बहुत वाचाल और मनमौजी था। उसके साथ हम कुछ डरते तो कुछ आनंदित होते भीमा नदी के उद्गम पर पहुंच गए।
भीमा नदी के उद्गम पर शिवलिंग             
जनवरी महीने में  भीमा में पानी तो कहने मात्र को था। एक झरनेनुमा स्थान के पास एक अत्यंत छोटी सी मढ़िया बनी हुई थी और पास में एक शिवलिंग जैसी आकृति पर कुछ फूल चढ़े हुए थे। कहा जाता है कि भीमाशंकर की उत्पत्ति यहीं पर हुई थी।

भीमा नदी का  उद्गम           छाया : हरिशंकर राढ़ी  
भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति: भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति के संबंध में एक कथा विख्यात है। कहा जाता है कि डाकिनी वन (आज का भीमाशंकर वनक्षेत्र) में राम-रावण युद्ध के पश्चातकाल में कर्कटी नामक राक्षसी अपने महाबलवान पुत्र भीमा के साथ रहती थी। कर्कटी लंकेश्वर रावण के भाई कुंभकर्ण की पत्नी थी, वही कुंभकर्ण जो अपनी षट्मासी निद्रा के लिए प्रसिद्ध है और जो राम के हाथों मारा गया था। कर्कटी ने अपने पुत्र भीमा को उसके पिता के विषय  में कुछ नहीं बताया था और यह रहस्य भीमा को परेशान किए रखता था। एक दिन भीमा के अति हठ के बाद कर्कटी ने राम -रावण युद्ध का वर्णन किया और बताया कि उसके पति और भीमा के पिता कुंभकर्ण श्री विश्णु के अवतार अयोध्या के राजा श्री राम के हाथों मारे गए थे। तब से वह इसी प्रकार दुखों का पहाड़ उठाए भटक रही है। यह सुनकर भीमा को बहुत क्रोध आया तथा उसने विष्णु से अपने पिता का बदला लेने का निश्चय किया।

भीमा को ज्ञात था कि विष्णु से बदला लेना इतना आसान नहीं है, इसलिए उसने ब्रह्मा की घोर तपस्या की और उनसे अतुलित शक्ति प्राप्त कर ली। इसके बाद उसने मनुष्यों, ऋषियों और देवताओं पर भयंकर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया। देवराज इंद्र के स्वर्ग पर आक्रमण करके, इंद्र को  पराजित करके स्वर्ग को अपने अधीन कर लिया। तीनों लोकों में उसका आतंक हो गया। सभी देवता मिलकर भगवान शिव के पास गए और उनसे प्रार्थना की कि वे उन्हें भीमा के आतंक से रक्षित करें। भगवान शिव ने देवताओं को उनकी रक्षा का आश्वासन दिया। एक बार उसने परम शिवभक्त कामरूपेश्वर को बंदी बना लिया और उनपर अतिशय अत्याचार करने लगा। एक दिन भीमा ने कामरूपेश्वर को आदेश दिया शिव के बजाय उसकी पूजा करे। कामरूपेश्वर के मना कर देने पर क्रोधित हो उसने तलवार निकाल ली और शिवलिंग पर वार करने ही जा रहा था कि भगवान शिव प्रकट हो गए। शिव - भीमा में भयंकर युद्ध हुआ तथा देवर्षि  नारद की प्रार्थना पर भगवान शिव ने भीमा का वध कर दिया। देवतागण प्रसन्न हुए और शिव से प्रार्थना की कि वे वहीं पर ज्योतिर्लिंग रूप में विराजें। भगवान शिव ने उनकी प्रार्थना मान ली और वे भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में डाकिन वन में स्थापित हो गए।

यह भी कहा जाता है कि युद्ध में शिव के शरीर से गिरी पसीने की बूंदों से भीमा नदी की उत्पत्ति हुई। एक अन्य कथा के अनुसार भगवान शिव ने यहीं त्रिपुरासुर का वध किया था और उस युद्ध में गिरे स्वेदकणों से भीमा नदी का जन्म हुआ था।
भीमाशंकर वन में हनुमान मंदिर           छाया : हरिशंकर राढ़ी 
आस-पास के दर्शनीय स्थल:भीमाशंकर मंदिर के आस-पास देखने के लिए प्रकृति में बहुत कुछ है। भीमाशंकर अभयारण्य अपने आप में एक बड़ा आकर्षण है। इस अभयारण्य में विभिन्न प्रकार के पक्षी और वन्य जंतु बहुतायत में देखे जा सकते हैं । हमारे पास समय कम था, अतः अभयारण्य घूमने की इच्छा अधूरी ही रह गई। हाँ, प्रकृति के साहचर्य में मुझे अकूत संतोष मिलता है, इसलिए जो भी मिल जाए उसे छोड़ना नहीं चाहता। भीमा उद्गम से वापसी के बाद पता लगा कि कुछ दूर जंगल में हनुमान जी का एक प्रसिद्ध मंदिर है। दूरी लगभग दो किलोमीटर होगी, पैदल का ही रास्ता है। इतना समय हमारे पास था और हम निकल पड़े जंगल की ओर। वास्तव में सहयाद्रि पर्वत माला का यह हिस्सा बहुत ही सौंदर्यशाली और हरा-भरा है। रास्तें में बहुत से युवक-युवतियां हनुमान मंदिर की ओर जाते मिले। हनुमान मंदिर तो कोई विशिष्ट नहीं है, किंतु यहां की शांति और एकांत मनमोहक था। इधर-उधर कूद-फांद करते हुए बंदर हमारा मनोरंजन कर रहे थे। निरभ्र वातावरण एक विशेष आनंदानुभूति दे रहा था। कुछ देर रुककर हम अपने लाॅज वापस आ गए। हनुमान लेक तथा अन्य स्थलों के भ्रमण का लोभ संवरण कर हम दोपहर बाद पुणे जाने वाली बस में भीमाशंकर की शांति और सौंदर्य मन में बसाकर वापस चल दिए।

 हनुमान मंदिर   का एक दृश्य        छाया : हरिशंकर राढ़ी
जरूरी जानकारियाँ: भीमाशंकर पुणे से लगभग 125 किलोमीटर की दूरी पर है और नियमित रूप से सरकारी तथा निजी बसें चलती रहती हैं। सरकारी बसें पुणे के स्वारगेट बस अड्डे से चलती हैं। पुणे से भीमाशंकर या तो मंचर या फिर घोड़ेगांव होकर जाया जाता है। दोनों  रास्ते ठीक हैं। निजी गाड़ियां प्रायः घोड़ेगांव होकर जाती हैं। टैक्सियां भी हमेशा मिल जाती हैं। यदि आपका समूह 4-5 या इससे अधिक का हो तो टैक्सियां बेहतर रहेंगी। पुणे से भीमाशंकर दर्शन की निजी बसें भी चलती हैं जो पुणे से सुबह चलकर षाम को वापस छोड़ देती हैं। चूंकि भीमाशंकर में ठहरने की व्यवस्था अच्छी नहीं है, इसलिए इस सुविधा का लाभ उठाया जा सकता है। हाँ, भीमाशंकर से पहले अच्छी श्रेणी के  होटल और रिजाॅर्ट मिल जाते हैं। यदि दो दिन का समय हो तो अभयारण्य, हनुमान लेक और ज्योतिर्लिंग के दर्शन ठीक से हो सकते हैं । यहां पूरे वर्ष  जाया जा सकता है, किंतु यदि गर्मियों से बचा जाए तो बेहतर होगा।

Tuesday, May 30, 2017

Maheshpur azamgarh

Maheshpur Azamgarh ka

महेशपुर (आजमगढ़ )
  - हरिशंकर राढ़ी 
समाज में आए व्यापक परिवर्तनों से कोई अछूता रह गया हो, यह संभव नहीं है। भौतिक प्रगति के साथ वैचारिक बदलाव हर जगह दिख रहा है और उसके साथ-साथ जीवन पद्धति में भी बड़ा बदलाव आया है। रूढ़ियां तो टूटी ही हैं, कुछ अच्छी परंपराएं भी बिखरी हैं। आदमी सुविधाभोगी हुआ है और उसके अनुसार उसने सिद्धांत और व्यवसाय भी बदला है। अन्य क्षेत्रों की भांति राढ़ियों के दोनों गांवों में व्यवसाय और सोच में काफी परिवर्तन आया है। नयी पीढ़ी बेहतर सुविधाओं और रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रही है, खेती पर निर्भरता कम हुई है। किंतु सबसे अधिक असर जातिगत तानेबाने पर हुआ है और उसमें भी सकारात्मक ताने-बाने पर। बिरादरी की परंपराओं का जो जुनून और कानून 30-40 साल पहले तक था, वह बिखर रहा है।
महेश और विष्णु में बड़ा भाई कौन था, इसे निश्चित रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता। महेश ने महराजगंज से उत्तर देवारा क्षेत्र चुना और बस गए। उनके बसाए गांव का नाम महेशपुर हुआ। वह जमाना निश्चित ही सुविधाओं के घोर अभाव का रहा होगा। न कोई रास्ता, न यातायात और न कोई नगरीय जुड़ाव। न जाने महेश बाबा की क्या मानसिकता रही होगी कि छोटी सरयू और बड़ी सरयू (घाघरा) के बीच के कछार क्षेत्र में उन्होंने बसने की ठानी होगी, जबकि दो-तीन सौ साल पहले देश में न कृषियोग्य भूमि की कमी थी और न इतनी आबादी का घनत्व। ऊपर से दूर आए हुए ज्ञानी ब्राह्मण। शायद उन्हें प्रकृति का सान्निध्य प्रिय रहा हो, बड़े साहसी रहे हों या एकांतवासी।
 महेशपुर  में शस्य साम्राज्य :                  छाया हरिशंकर राढ़ी 
जो भी हो, मेरे बचपन का महेशपुर आज से बहुत भिन्न था। महराजगंज बाजार के पुराने चैक से बनियों और कुम्हारों के मोहल्ले से होते हुए छोटी सरयू नदी को पार करिए और वहां से एक पतली सी गहरी कच्ची सड़क (जिसे हम खोर कहते थे, खोर की कोई सही उत्पत्ति मुझे तो नहीं मिली, हो सकता है कि खोह का अपभ्रंश हो क्योंकि यह रास्ता किसी खोह जैसा ही गहरा था।) सर्पीले आकार में चली जाती थी। कुल जमा चैड़ाई एक बैलगाड़ी निकलने भर को। खोर के दोनों ओर सरपत और मेउड़ी की बाड़। मेउड़ी अब नहीं दिखती और न मैं इस वनस्पति शास्त्र का इतना बड़ा ज्ञाता हूँ कि उसका सर्वव्यापी या वानस्पतिक नाम बता सकूँ। इतना याद है कि इस मेउड़ी का उपयोग टोकरियां (जिन्हें आजमगढ़ मंे खांची कहा जाता है) बनाने में किया जाता था क्योंकि इसके लरछे बड़े मजबूत और चिम्मड़ होते थे। इसके अतिरिक्त छप्पर का बंधन बांधने में भी ये काम आती थीं, जलावन भी होता था किंतु मेउड़ी का सर्वाधिक सदुपयोग अध्यापकों द्वारा छात्रों की पिटाई और चमड़ा उतारने में किया जाता था। यह सर्वसुलभ शस्त्र था और इससे देश की शिक्षा व्यवस्था आगे बढ़ती थी। मैं इस मामले में सौभाग्यशाली था कि मुझे इसके प्रहार का स्वाद नहीं मिला था। कारण दो थे-- एक तो मेरी माता जी उसी विद्यालय में पढ़ाती थीं और दूसरे यह कि मैं अपने काम में किसी प्रकार की कमी नहीं रखता था। हाँ, बाकी बहुत से सहपाठियों को मेउड़ी का प्रहार सहते जरूर देखा था। पूरे मन से पढ़ाने और पीटने के मामले में तब प्राइमरी पाठशाला के अनेक शिक्षक बहुत विख्यात होते थे।

 महेशपुर  में लेखक का पैतृक आवास                  छाया :        हरिशंकर राढ़ी
महराजगंज और महेशपुर के बीच पुराने बाजार से लगभग दो किमी की दूरी थी। इस बीच में न कोई घर और न कोई ठांव। राहगीर अकेला हो और हिम्मती न हो तो उसका मालिक भगवान ही। हाँ, लगभग बीच में मुंडीलपुर गांव जरूर पड़ता था, कितु रास्ते से काफी दूर। बीच में पकवा इनार (पक्का कुआं)। पकवा इनार मुड़ीलपुर के ठाकुर जगन्नाथ सिंह का बगीचा और उसमें बना ऊंची जगत का पक्का कुआं जो शायद आम के बाग के लगने के समय सिंचाई के लिए बनवाया गया होगा। वहां से आगे निकले तो बौलिया नामक एक पोखरी और पेड़ों की घनी झुरमुट। कोढ़ में खाज यह कि बौलिया पर भूतों और चुड़ैलों का बसेरा होने का अंधविश्वास। बच्चे तो क्या, बड़ों की हिम्मत नहीं पड़ती थी शाम ढलते ही वहां से गुजरने की। कुछ लोग थे जो रात में देर से आते, उन्हें बड़ा हिम्मती मर्द माना जाता था। मौसम गर्मियों का हो तो, गनीमत। सबसे भयंकर दृश्य होता था बारिश के मौसम का। छोटी सरयू उफान पर और वहां से गांव तक की खोर पानी से भरी हुई। घुटनों तक पानी, तैरते हुए सांप बिच्छू और उनमें से होकर निकलना। मुझे ठीक से याद है कि बरसात के चार महीनों में हम बच्चों का बाजार जाना बिलकुल बंद। घर का कोई बड़ा सप्ताह में एक दिन बाजार जाता तो नमक, मिट्टी का तेल और माचिस जैसी आवश्यक वस्तुएं ले आता। दो-चार पड़ोसी भी कुछ न कुछ लाने को दे दिया करते। जहां तक मुझे याद है, सन् 1975 के बाद कच्ची सड़क पटनी शुरू हुई थी और सन 1984 में छोटी सरयू पर लकड़ी का पुल बनकर तैयार हुआ था।
महेशपुर आज एक विकसित गांव है और बैंक के अलावा सारी सुविधाएं मौजूद हैं। भारतीय स्टेट बंैक भी लगभग खुल गया था किंतु गांव के प्रभावी लोगों के झगड़े में निरस्त हो गया। महेशपुर में कुल सात पुरवे हैं जिसमें दक्षिण का पूरा और उत्तर के पूरा में राढ़ी ब्राह्मणों के कुल मिलाकर 40 घर होंगे। इसके अतिरिक्त गांव में जातिगत आबादी में यादव बहुसंख्यक हैं। अनुसूचित जाति, कोइरी और गड़ेरिया जाति की भी जनसंख्या अच्छी है। महेशपुर गांव के लोग सामान्यतः शांतिप्रिय हैं और जाति आधारित विवाद कभी भी नहीं हुआ है। जो भी विवाद हैं, वे संपत्ति से संबंधित हैं और न्यायालय के अलावा हिंसा के स्तर पर प्रायः नहीं आते। जातिगत मतभेद या जातिवाद चुनावों के अतिरिक्त कभी मुखर नहीं होता। एक -दूसरे के सुख-दुख में शरीक होने के पुरानी भारतीय संस्कृति अभी भी इस गांव में चल रही है।
जनगणना विभाग के आंकड़ों के हिसाब से (2011की जनगणना, जो वेबसाइट पर उपलब्ध है) इस गांव में कुल 212 परिवार हैं और कुल आबादी 1526 है जिसमें 762 पुरुष और 764 महिलाएं हैं। महेशपुर की साक्षरता दर 66.4 है जो औसत से जरा सा कम है किंतु लिंगानुपात सकारात्मक है। समुद्रतल से ऊँचाई 91 मीटर है।
वैसे वेबसाइट सर्च के दौरान मुझे महेशपुर के विषय में जो जानकारियां मिलीं, वे बड़ी हास्यास्पद और अविश्वसनीय थीं। न जाने किन लोगों ने किस आधार पर कहां से सूचना एकत्रित की तथा पूरी तरह से दिग्भ्रमित करने का प्रयास किया है। उदाहरण के तौर पर एक वेबसाइट ने बताया कि महेशपुर महराजगंज तहसील में पड़ता है जबकि महराजगंज तहसील है ही नहीं। पता नहीं किस जिले के महराजगंज को महेशपुर की तहसील बना दिया। मैंने इस वेबसाइट को काफी पहले मेल भी लिखा किंतु उनके कान पर जूँ नहीं रेंगी। इसी प्रकार एक दूसरी वेबसाइट ने महेशपुर का निकटतम अस्पताल बलरामपुर लिखा है जो गोंडा जिले में है और निकटतम हवाई अड्डा अकबरपुर बताया है जबकि अकबरपुर मे हवाई अड्डा है ही नहीं। इन भ्रामक सूचनाओं के आधार पर कोई महेशपुर के विषय में क्या जानकारी इकट्ठा करेगा, सोचने वाली बात है।
मेरा बचपन और पूरी किशोरावस्था इसी महेशपुर में गुजरी है। युवावस्था का प्रथम चरण भी कमोवेश यहीं बीता है और इस गांव की मिट्टी मेरे तन-मन में बसी है। इस गांव में एक प्राइमरी स्कूल था, कालांतर में एक इंटर कालेज बना। पहली से लेकर आठवीं तक की शिक्षा गांव के प्राथमिक पाठशाला और आदर्श इंटर काॅलेज में हुई। तब यह दसवीं तक ही था। विज्ञान पढ़ने के लिए मैं नौवीं कक्षा में इंटर काॅलेज महराजगंज चला गया किंतु महेशपुर की यादें साथ लगी रहीं। अपने शुरुआती दिनों में आदर्श इंटर काॅलेज वाकई आदर्श रहा। यह बात अलग है कि बाद में विभिन्न कारणों और स्वार्थों के चलते यह अपने नाम का पूरा विरोधी हो गया। गांव में शाखा डाकघर, सहकारी खाद-बीजगोदाम, पशु चिकित्सालय, सरकारी नलकूल और न जाने कितनी सरकारी योजनाएं तबसे हैं जब ये विरली होती थीं। इनमें अधिकांश विकास कार्य एवं संस्थाओं की स्थापना स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व0 पं0 लक्ष्मीकंात मिश्र के अथक प्रयासों एवं प्रभाव से हुई थीं। आदर्श इंटर काॅलेज की स्थापना भी इन्हीं की देन है जिसमें विवाद के चलते अलग होना पड़ा। इसके बाद पं0 लक्ष्मीकांत मिश्र जी ने दक्षिण पूरा में इंटर काॅलेज की जमीन पर सन 1986 के आसपास बालिका विद्यालय की नींव डाली। उनके समय तक बालिका विद्यालय में विकास कार्य होता रहा, अनेक कमरे बने किंतु 90 के दशक में उनका निधन हो जाने के बाद विद्यालय उसी स्थिति में रह गया। उनके सामाजिक अवदान को देखते हुए महराजगंज के नए चैक पर  उनकी प्रतिमा स्थापित की गई। वह समय बदलाव का था। निजीकरण शुरू हो गया था, शिक्षा संस्थान समाज सेवा न होकर आय के स्रोत बन गए, सरकारी विद्यालयों का स्तर गिरने लगा, सरकार ने अनुदान देना बंद कर वित्तविहीन मान्यता देनी शुरू कर दी। व्यावसायिक बुद्धि न रखने वाले समाजसेवी पिछड़ते गए और शिक्षा पूर्णरूपेण शिक्षा माफिया के हाथों में चली गई।
 महेशपुर  में अपने पैतृक आवास पर लेखक                  छाया :      हरिशंकर राढ़ी
गांव का व्यासायिक और सामाजिक ताना-बाना बदलता गया। कुछ राढ़ी जो जमींदार थे, जमींदारी उन्मूलन के बाद जमीन पर आ गए। खेतों की सीमा निर्धारित कर दी गई और कालांतर में चकबंदी भी हो गई। महेशपुर के राढ़ियों में सबसे बड़ी जमींदारी रामानंद-रामशरण राढ़ी की थी जो देवारा कदीम से लेकर मथुरा ठेकेदार के पूरा तक फैली थी। समय की मार और कुप्रबंधन ने इनके बिखरने में बहुत योगदान दिया। यह मलाल इस पूरे खानदान को अभी भी सालता है और यह लेखक भी उनकी चैथी पीढ़ी का हिस्सा है। बिखराव के बाद चैथी पीढ़ी ने स्वयं को संभाला और अपनी मेधा और शिक्षा के बल पर अब इनमें से अधिकांश विकसित या विकास की ओर अग्रसर हैं। वैसे भी इस गांव के अनेक राढ़ियों ने मेधा और शिक्षा के बल पर तमाम सरकारी नौकरियां प्राप्त कीं और उच्च पदों पर रहे। इनमें से उत्तर के पूरा  कई लोग उल्लेखनीय हैं। पुरानी पीढ़ी में उत्तर के पूरा में रमाशंकर मिश्र की भी ख्याति थी। आज महेशपुर गांव में अनेक लोग पीएच. डी और उच्च पदस्थ हैं।
महेशपुर का पश्चिमी पूरा यहां की कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा है। इसे पहले इसे ‘सनपुर’ के नाम से जाना जाता था। कागजों में इसे महेशपुर भले ही लिखा जाता हो, स्थानीय लोग इसे सनपुर के नाम से ही जानते हैं। सनपुर की अधिकांश आबादी यादवों की है और मुख्य महेशपुर से इसकी दूरी एक किमी से अधिक ही होगी।
महेशपुर और सनपुर को जोड़ने वाला रास्ता अब पक्की के सड़क के रूप में है और इसके मध्य में श्री मोतीलाल यादव (पूर्व ब्लंाॅक प्रमुख) द्वारा स्थापित स्व0 ईशदत्त स्मारक डिग्री काॅलेज है। हालांकि यह देवारा कदीम के नाम से पंजीकृत है किंतु वास्तव में महेशपुर में स्थापित होने से महेशपुर की शोभा और गरिमा को यह चार चांद लगाता है। गांव की लड़कियों को अब उच्च शिक्षा आंगन में ही मिलने लगी है। चूंकि श्री मोतीलाल यादव के पुत्र श्री राकेश यादव गुड्डू इस क्षेत्र से एमएलसी हैं, अतः विकासकार्य को गति मिलना स्वाभााविक है।
सनपुर से अविछिन्न खेमानंदपुर महेशपुर का छोटा भाई सा लगता है और इन दोनों गावांे को मिलाकर ग्रामपंचायत का निर्माण हुआ है। पड़ोसी गांव सादातपुर और खोजापुर आकार और आबादी में बहुत छोटे हैं इसलिए ये भी महेशपुर के अभिन्न अंग से लगते हैं। आपसी भाई-चारा और न्योता-भोज में ये महेशपुर से अलग नहीं होते। दरअसल, दूर के क्षेत्रों में इन दोनों गांवों के लोग स्वयं को महेशपुर का ही निवासी बताते हैं....महेशपुर ख्यातिप्राप्त तो है ही।

 महेशपुर  में शस्य साम्राज्य                           छाया  :     हरिशंकर राढ़ी
अब वे असुविधाओं वाले दिन गए। गांव से सटती हुई सड़क घाघरा के बांध सहदेव गंज तक जाती है जिस पर बढ़ते यातायात को देखकर देश की प्रगति का विश्वास होता है। लगभग हर घर में दुपहिया वाहन,  अनेक ट्रैक्टर, गाड़ियां और आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित हो चुका है महेशपुर। अब न वो बाढ़, न खोर और न सांप-बिच्छू। दिन-रात फर्राटे भरती गाड़ियों को देखकर और महराजगंज आजमगढ़ को पैरों के तले देखकर बड़ा संतोष मिलता है, नहीं मिलते तो यहां की पगडंडियों पर बिताए बचपन केे दिन... मेरे बचपन का महेशपुर....